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________________ भाषा-स्वरूप १३३ ___ अन्ययात्र.-हे इन्द्रभूति ! जैसे (सूयरे) शूकर (कणकुंडग) धान के कूड़े को (चहप्ताणं) छोड़ कर (विट्ठ) विष्टा ही को (मुंजइ) लाता है, (एवं) इमो तरह (मिए) पशु के समान मूखं मनुष्य (सील) अच्छी प्रवृत्ति को (चहत्ताणं) छोड़ कर ( दुस्मीले) खराब प्रवृत्ति ही में (रमई) आनंद मानता है। भावार्थ:- हे गौतम ! जिस प्रकार सुअर घान्य के भोजन को छोड़ कर विष्टा ही स्वाता है, इसी तरह मूर्ख मनुष्य सदाचार-सवन और मधुर भाषण आदि अच्छी प्रवृत्ति को छोड़ कर दुराचार-सेवन करने तथा कटुभाषण करने ही में आनंद मानता रहता है, परन्तु उस मूर्ख मनुष्य को इस प्रवृत्ति से अन्त में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है । मूल:--आहच्च चंडालियं कट्ट। न निण्हविज्ज कयाइ वि। कई कडेत्ति भासेज्जा, समाई णो नदि य !॥१३॥ छाया:कदाचिच्च चाण्डालिकं कृत्वा, न निल बीत वादापि च । कृतं कृतमिति भाषेत, अकृतं नो कृतमितिच ॥१३॥ सम्बया:-हे इन्द्रभूति (आहच्च) कदाचित् (चंडालियं) क्रोध से मुठ भाषण हो गया हो तो झूठ भाषण (कटु) करके उसको (कयाइ) कमी (वि) भी (न) न (निण्हविज) छिपाना चाहिए (कर्ड) किया हो तो (कडेत्ति) किया है ऐसा (मासेज्जा) बोलना चाहिए (य) और (अकई) नहीं किया हो तो (णो) नहीं (कडेत्ति) किया ऐसा बोलना चाहिए। भावार्थ:--- हे गोतम ! कमी किमी से नोध के आवेश में आकर झूठ भाषण हो गया हो तो उसका प्रायश्चित्त करने के लिए उसे कभी भी नहीं छिपाना चाहिए। कटमाषण किया हो तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि हाँ मुझसे हो तो गया है । और नहीं किया हो तो ऐसा कह देना चाहिए कि मैंने नहीं किया है।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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