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________________ निर्ग्रन्थ-प्रवचन माषा को (सगा) हमेशा (न) नहीं (भामेज्ज) बोलना चाहिए (म) और (पडि-।। णीयं) अपकारी (उहारिणि) निश्चयकारी (अप्पियकारिणि) अप्रियकारी (भास) । भाषा को भी हमेशा जो नहीं बोलता हो (स) वह (पुज्को) पूजनीय मानव है ।। भावार्थः - हे गौतम ! जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में अवगुणवाद के वचन | कभी भी नहीं बोलता हो। जैसे तू चोर है। पुरुषार्थी पुरुष का कहना कि तू नपुंसक है। ऐमी भाषा तथा अप्रियकारी, अपकारी, निश्चयकारी भाषा जो ! कभी नहीं बोलता हो, वह पूजनीय मानक है। मूल:-जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सम्बसो । एवं दुस्सीलपाडणीए, मुहरी निक्कसिज्जइ ।।११।। छाया:-यथा शुनी पूर्तिकर्णी, नि:कास्यते सर्वतः। एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः, मुखारिनि:कास्यते ॥११।। अन्वयार्थ:--- है इन्द्रभूति ! (जाह) जैसे (गुइकण्णी) सहे कान वाली (सुणी) कुत्तिया को (सव्वसो) सब जगह रो (निवासिज्जइ) निकालते हैं । (एवं) इसी प्रकार (दुम्सील) खराब आचरण बाले (पडिणीए) गुरु और धर्म से द्वेष करने वाले और मुहरी) अंट संट बड़बड़ाने वाले को (निक्कासिज्जइ) कुल में से बाहर निकाल देते है। भावार्थ:- हे गौतम ! सड़े कान वाली फुतिया को सब जगह धुत्कार मिलता है और वह हर जगह से निकाली जाती है। इसी तरह दुराचारियों एवं धर्म से द्वेष करने वालों और मुंह से कटुवचन बोलने वालों को सब जगह से घुल्कारा मिलता है । और वहाँ से निकाल दिया जाता है। मल:-- कणकुण्ड चइत्ताणं, विट्ठ भृजइ सूयरे । एवं सील चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ॥१२॥ छाया:--कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भुङ क्ते शुकरः । एवं शीलं त्यक्त्वाः दुःशीलं रमते मृगः ॥१२।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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