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________________ 3x निर्ग्रन्थ-प्रवचन ____ अन्वयार्थः--हे इन्द्रभूति ! (अहिंसा) जीव दया (संयम) यत्ना और (तयो) तप रूप (धम्मो) धर्म (उस्किट्ठ) सब से अधिक (मंगल) मंगलमय है । इस प्रकार के (पम्मे) धर्म में (जस्स) जिसका (सया) हमेशा (मणो) मन है, (तं) उसको (देवा वि) देवता भी (नमसंति) नमस्कार करते हैं । भावार्थ:--हे गौतम ! किंचितमात्र भी जिसमें हिंसा नहीं है, ऐसी अहिंसा, संयम और मन-वचन-काया के अशुभ योगों का घातक तथा पूर्वकृतापों का नाश करने में अग्रसर ऐसा तम, ये ही जगत में प्रधान और मंगलमय धर्म के अंग हैं 1 बस एकमात्र इसी धर्म को हृदयंगम करने वाला भानव देवों से मी सदैव पूजित होता है, तो फिर मनुष्यों द्वारा वह पूज्य दृष्टि से देखा जाय इस में आश्चयं ही क्या है ? मूल:--मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविति साहा । साहप्पसाहा विरहंति पत्ता, । तओ से पुष्पं च फलं रसो अ ।।६।। छायाः-मूलात्स्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, __ स्कन्धात् पश्चात समुपयान्ति शाखाः । शाखाप्रशाखाभ्योविरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च ॥!| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुमस्स) वृक्ष के (मूलाउ) मूल से (खंधप्पभयो) स्कन्ध अर्थात् "पीड" पैदा होता है (पच्छा) पश्चात् (खंधाउ) स्कंध से (साहा) शाखा (समुविति) उत्पन्न होती है। और (माहप्पसाहा) साखा प्रतिशाखा से (पत्ता) पत्ते (विरुहति) पैदा होते हैं । (तओं) उसके बाद (से) वह वृक्ष (पुप्फं) फूलदार (च) और (फलं) फलदार (अ) और (रसो) रस वाला बनता है । भावार्थ:-हे गौतम ! वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है। तदनन्तर स्कन्ध से शास्त्रा, टहनिर्या और उसके बाद पत्ते उत्पन्न होते हैं। अन्त में वह वृक्ष फूलदार, फसदार व रस वाला होता है ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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