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नियंग्य-प्रवचन
दिल को
भावार्थ :- हे आर्य ! नास्तिक लोग प्रत्यक्ष भोगों को छोड़कर मत्रिष्यत् की कौन आशा करे, इस प्रकार कह कर, है। फिर थे, हलने-चलते उस जीवों और स्थावर जीवों को प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन से, हिंसा करने के लिए, मन, वचन, काया के योगों को प्रारम्भ कर असंख्य जीवों की हिंसा करते हैं ।
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मूल:- हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेअं ति मन्नई ॥ १८६॥
छाया: - हिस्रो बालो मृषावादी, मायी च पिशुनः शठः । भुञ्जानः सुरां मांसं श्रेयों मे इदमिति मन्यते ॥ १८ ॥
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अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! स्वर्ग नरक को न मान कर वह (हिंसे) हिंसा करने वाला (बाले) बजानी (भुसावाई) फिर झूठ बोलता है ( माइल्ले) कपट करता है, (पिसुणे) निन्दा करता है ( सढे ) दूसरों को ठगने की करतूत करता रहता है। ( सुरं) मंदिरा ( मंसं ) मांस ( भुजमाणे) मांगता हुआ (सेयमे) श्रेष्ठ है (ति) ऐसा (मन्नई) मानता है ।
भावार्थ:- हे गौतम! स्वर्ग नरक आदि को असम्भावना करके वह अज्ञानी जीव हिंसा करने के साथ ही साथ झूठ बोलता है। प्रत्येक बात में कपट करता है । दूसरों की निंदा करने में अपना जीवन अर्पण कर बैठता है । दूसरों को ठगने में अपनी सारी बुद्धि खर्च कर देता है और मदिरा एवं मांस खाता हुआ भी अपना जीवन श्रेष्ठ मानता है ।
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मूलः — कायसा वयसा मत्त वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥ १६ ॥
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छाया: – कायेन वचसा मत्तः वित्तं गृद्धश्च स्त्रीषु । द्विधा मलं सश्चिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥ ११॥