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________________ कषाय-स्वरूप १५६ भावार्थ:-अज्ञानी नास्तिक इस प्रकार कहते हैं कि हे धर्म के तत्त्व को जानने वालो ! ये कामभोग जो प्रत्यक्ष रूप में मुझे मिल रहे हैं और जिन्हें त्याग देने पर आगामी भव में इससे भी बढ़ कर तथा आत्मिक सुख प्राप्त होगा, ऐसा तुम कहते हो; परन्तु यह तो भविष्यत् की बात है और फिर कौन जानसा है कि नरक, स्वर्ग और मोक्ष है या नहीं ? मूल:-जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भइ ! कामभोगाणराएणं, केसं संपड़िवज्जइ ॥१६॥ छाया:--जनेन साई भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते । कामभोगानुरागेण, क्लेशं स: सम्प्रतिपद्यते ॥१६॥ अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (जर्णण सदि) इतने मनुष्यों के साथ मेरा भी (होक्खामि) जो होना होगा, सो होगा, (इ) इस प्रकार (बाले) वे अज्ञानी (पगम) बोलते हैं, पर वे आखिर (काम मोगाणुराएणं) फाममोगों के अनुराग के कारण (केस) दुम्न ही को (संपडिबज्जइ) प्राप्त होते हैं । ____ भावार्थ:-हे गौतम ! वे अज्ञानी जन इस प्रकार फिर बोलते हैं कि इतने दुष्कर्मी लोगों का परलोक में जो होगा, वह मेरा भी हो जायगा । इतने सब के सब लोग क्या मूर्ख हैं ? पर हे गौतम ! आखिर में वे काममोगों के अनुरागी लोग इस लोक और परलोक में महान् दुरनों को मोगते हैं । मुलः–तओ से दंडं समारभइ, तसेस थावरेस् य । अट्ठाए व अणवाए, भूयग्गामं विहिंसइ ॥१७॥ छायाः ततो दण्ड समारभते, असेष स्थावरेषु च । अर्थाय चानाय, भूतनाम विहिनस्ति ।।१७।। अन्वयार्थ:--हे इन्द्र भूति ! यों स्वर्ग नरक आदि की असम्भावना मान करके (तो) उसके बाद (से) वह मनुष्य (तसेसु) अस (अ) और थावरेसु) स्थावर जीवों के विषय में (अट्टाए) प्रयोजन से (व) अथवा (अणट्ठाए) बिना प्रयोजन से (दं) मन, वचन, काया के दण्ड को (समारमा) समारंभ करता है और (मूयग्गाम) प्राणियों के समूह का (विहिंसइ) वध करता है ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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