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ब्रह्मचर्य-निरूपण
___ भावार्थ:-हे गौतम ! ब्रह्मचारियों को फोड़े के समान स्तनवाली एवं चंचल चित्तवासी, जो बातें तो किसी दूसरे से करे, और देखे दूसरे ही की ओर ऐसी अनेक चित्तबाली, राक्षसियों के समान स्त्रियों में कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे स्त्रियां मनुष्यों को विषय-वासना का प्रलोभन दिखा कर अपनी अनेक आज्ञाओं का पालन कराने में उन्हें दासों की मांति दत्तचित्त रखती हैं। मूल:--भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मंदिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेल म्मि ॥६॥ छाया:--भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिश्रेयससबुद्धि विपर्यस्तः ।
बालश्च गन्दो मूढः, नभ्यते प्रथिनोन श्लेषि !!!! अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (भोगामिसदोसविसन्ने) मोग रूप मांस जो आरमा को दूषित करने वाला दोष रूप है, उसमें आसक्त होने वाले तथा (हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे) हितकारक जो मोक्ष है उसको प्राप्त करने की जो बुद्धि है उससे विपरीत बर्ताव करने वाले (य) और (मंदिए) धर्म-क्रिया में आलसी (मूळे) मोह में लिप्त (बाले) ऐसे अज्ञानी जीव कमों में बंध जाते हैं और (खेलम्मि) श्लेएम-कफ में (मच्छिा ) मक्खी की (8) तरह (बज्झई) फेस जाते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम | विषय वासना रूप जो मांस है, यही आत्मा को दूर्षित करने वाला दोष रूप है। इसमें आसक्त होने वाले तया हितकारी जो मोक्ष है उसके साधन की बुद्धि से विमुख और धर्म करने में आलसी तषा मोह में लिप्त हो जाने वाले अज्ञानी जन अपने गाढ कर्मों में जैसे मक्खी एलेश्म (कफ) में लिपट जाती है वैसे ही फंस जाते है। मुलः सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुगगई ॥१०॥ छायाः-शल्यं कामा विष कामाः, कामा आशीविषोपमा:।
कामान् प्रार्थयमाना, अकामा यान्ति । दुर्गतिम् ॥१०॥