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________________ सम्यक् निरूपण ६६ सम्धनस्व से पतित होते हुए अन्य पुरुष को यथाशक्ति प्रयत्न करके सम्यक्रव में जो दृढ़ करता है। स्वर्थी नोंकी वाले को वात्सल्य भाव दिखाता है । पति मूल:- मिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोहि ॥ छाया:- मिथ्यादर्शन रक्ताः सनिदाना हि हिंसकाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, तेषां पुनः दुर्लभा बोधिः ॥ ९ ॥ अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ( भिच्छादंसणरत्ता) मिथ्या दर्शन में रत रहने घाले और (सनियाणा) निदान करनेवाले (हिमगा) हिंसा करने वाले ( इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीष (मरति ) मरते हैं । (तसि) उनको ( पुणे ) फिर (बोहि) सम्यक्त्व धर्म का मिलना ( हु ) निश्चय ( दुल्लहा ) दुर्लभ है । , भावार्थ: - हे भयं ! कुदेव कुगुरु कुधर्म में रत रहने वाले और निदान सहित धर्मक्रिया करने वाले एवं हिंसा करने वाले जो जीव हैं, वे इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करके मरते हैं, तो फिर उन्हें अगले भव में सम्यक्त्व बोध का मिलना महान कठिन है । मूलः -- सम्मद्द सणरत्ता अनियाणा, सुक्कलेसमोगाडा | इय जे मरति जीवा, सुलहा तेसि भवे बोहि ॥ १० ॥ छायाः - सम्यग्दर्शन रक्ता अनिदाना शुक्ललेश्यामवगाढाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः || १०|| अम्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( सम्म हंसणरता ) सम्यक्त्वदर्शन में रत रहने वाले (अनियाणा) निदान नहीं करनेवाले एवं ( सुक्कलेस मोगाढा) शुक्ल लेश्या से समन्वित हृदय वाले ( इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं ( तसि) उन्हें (बोहि ) सम्पनत्व ( सुलहा ) सुलभता से ( मदे ) प्राप्त हो सकता है। भावाः हे गौतम! जो शुद्ध देव, गुरु और धर्म रूप दर्शन में श्रद्धा पूर्वक सवैष रत रहता हो। निदानरहित तप, धर्मक्रिया करता हो, और शुद्ध
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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