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________________ ७० निर्ग्रन्थ-प्रवचन परिणामों से जिसका हृदय उमंग रहा हो। इस तरह प्रवृत्ति रस करके जो जीव' मरते हैं। उन्हें धर्म बोध की प्राप्ति अगले मव में सुगमता से होती। जाती है। मूल:--जिण वयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेण । अमला असं किलिङ्का, ते होंति परित्तसंसारी ॥११॥ छाया:--जिनवचनेऽनुरक्ताः , जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंक्लिष्टास्ते भवन्ति परीतसंसारिणः ॥१।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्र भूति ! (ज) जो जीव (जिणवयणे) वीतरागों के वचनों में (अणुरत्ता) अनुरत रहते हैं और (भावेणं) श्रद्धापूर्वक (जिणवयणं) जिन वचनों को प्रमाण रूप (करिति) मानते हैं (अमला) मिथ्यात्व रूप मल से रहित एवं (असंफिलिट्ठा) संक्लेश करक रहित जो हों, (त) वे (परित्तसंसारी) अल्प-संसारी होते हैं। भावार्थ:-हे आर्य ! जो वीतराग के कहे हुए बननों में अनुरक्त रह कर उनके वचनों को प्रमाणभूत मानते हैं, तथा मिथ्यात्व रूप दुगुणों से बचते हुए राग-द्वेष से दूर रहते हैं, वे ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके, अल्प समय में ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। मूलः–जाति च बुडि च इहज्ज पास, भूतेहि जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविज्जो परमति जच्चा, सम्मत्तदंसी ण करेति पावं ।।१२।। छायाः-जाति च वृद्धिं च इह दृष्ट्वा , भूतंत्विा प्रतिलेख्य सातम् । तस्मादतिविज्ञः परमिति ज्ञात्वा, सम्यक्त्वदर्शी न करोति' पापम् ।।१२॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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