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________________ कर्म निरूपण २५ नरक में ( एगया) कभी (आसुरं ) मवनपति आदि असुर की ( कार्य ) काय में ( गच्छद) जाता है । - भावार्थ: है गौतम ! आत्मा जब शुभ कर्म उपार्जन करता है तो वह देवलोक में जाकर उत्पन्न होता है । यदि वह आत्मा अशुभ कर्म उपार्जन करता है तो नरक में जाकर घोर यातना सहता है । और कभी अज्ञानपूर्वक बिना इच्छा के क्रियाकाण्ड करता है तो वह भवनपति आदि देवों में जाकर उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध हुआ कि यह आत्मा जैसा कर्म करता है वैसा स्थान पाता है । मूलः -- तेणे जहा संधिमुहे गहीए; सकम्मुणा किच्च पावकारी | एवं पया पेच्च इहं च लोए; कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ||२२|| छात्रस्तेनो धराध गृही स्वकर्मणा क्रियते पापकारी । एवं प्रजा प्रेत्य दह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति ॥ २२॥ पकड़ा जा कर (सकम्मुणा ) अन्वयार्थः - हे इन्द्रभूति ! ( जहा ) जैसे ( पायकारी) पाप करने वाला ( तेणें ) चोर (संधिमुहे ) खात के मुंह पर (गहीए) अपने किए हुए कर्मों के द्वारा ही ( किञ्चइ ) छेदा जाता है, दुःख उठाता है, ( एवं ) इसी प्रकार (पया) प्रजा अर्थात् लोक (पेष्वा ) परलोक (च) और ( इहलोए) इस लोक में किये द्वारा दुःख उठाते हैं। क्योंकि (क) किये हुए (कम्माण ) कर्मों को भोगे बिना ( मुक्ख ) छुटकारा (न) नहीं ( अस्थि) होता । हुए दुष्कर्मों के --- भाषार्यः - हे गौतम ! कर्म कैसे हैं ? जैसे कोई अत्याचारी चोर खात के मुंह पर पकड़ा जाता है, और अपने कृत्यों के द्वारा कष्ट उठाता है अर्थात् प्राणान्त कर बैठता है। वैसे ही यह आत्मा अपने किये हुए कर्मों के द्वारा इस
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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