________________
१२२
निग्रंन्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! तूने धन और स्त्री को त्याग कर साधु वृत्ति को धारण करने की मन में इच्छा करली है । तो उन त्यागे हए विषैले पदार्थों का पुनः सेवन करने की इच्छा मत कर । प्रत्युत' त्याग वृत्ति को रद्द करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर । मूलः--न हु जिप न दिसई,
बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२५।। छाया:-न स्खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदेशनः ।
सम्प्रति नैयायिके पथि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।२५।। मान्वया:- (गोयम !) हे गौतम ! (मज) आज (ह) निश्चय करके (जिणे) तीर्थकर (न) नहीं (दिसई) दिखते हैं, किन्तु (मगदेसिए) मार्गदर्शक और (बहुमए) बहुतों का माननीय मोक्षमार्ग (दिस्राई) दिखता है। ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्मध्यान करेंगे। तो मला (संपइ) वर्तमान में मेरे मौजूद होते हुए (नेयाउए) नयायिक (पहे) मागं में (समय) समय मात्र का मी (मा पमाया) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:--हे गोतम ! पंचम काल में लोग कहेंगे कि आज तीर्थकर तो हैं नहीं, पर तीर्थकर प्ररूपित मार्गदर्शक और अनेकों के द्वारा माननीय यह मोक्षमार्ग है। ऐसा वे सम्पक प्रकार से समझते हुए धर्म की आराधना करने में प्रमाद नहीं करेंगे। तो मेरे मौजूद रहते हुए न्याय पप से साध्य स्थान पर पहुँचने के लिए है गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । मूल:--अवसोहियकंटगापह,
ओइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया,
समय गोयम ! मा पमायए ।।२६।।