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________________ प्रमाद-परिहार छाया:-अवशोध्य कण्टकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयं । गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गोतम ! मा प्रमादीः ॥२६।। मम्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (कंटगापह) कंटक सहित पंथ को (अवसोहिया) छोष्ट कर (महालयं) विशाल मार्ग को (ओइण्णोसि) प्राप्त होता हुआ, उसी (विसोहिया) विशेष प्रकार से शोधित (मग्ग) मार्ग को (गच्छसि) जाता है । अतः इसी मार्ग को तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्षः-हे गौतम ! संकुचित अतथ्य पथ को छोड़ कर जो तूने विशाल तथ्य मार्ग को प्राप्त कर लिया है । और उसके अनुसार तू उसी विशाल मार्ग का पथिक भी बन चुका है। अतः इसी मार्ग से अपने निजी स्थान पर पहुंचने के लिये हे गौतम ! तू एक समय मात्र का मी प्रमाद मत कर । भूल:--अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२७॥ छाया:--अबलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषममनाह्य । पश्चात्पश्चादनुताप्यते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२७|| अन्वयार्थ:--(गोयम !) हे गौतम ! (जह) जैसे (अबने) बलरहित (भारघाहए) बोझा ढोने वासा मनुष्य (विसमे) विषम (मग्गे) मार्ग में (अवगाहिया) प्रवेश हो कर (पच्छा) फिर (पच्छाणुतावए) पश्चाताप करता है। (मा) ऐसा मत बन । परन्तु जो सरल मार्ग मिला है उसको तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर।। भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे एक दुर्बल आदमी बोझा उठा कर विकट मार्ग में चले जाने पर महान् पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही जो नर अल्पज्ञों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को ग्रहण कर कुपंथ के पथिक होंगे, वे चौरासी की पक-फेरी में जा पड़ेगे और यहाँ वे महान् कष्ट उठायेंगे । अतः पश्चात्ताप करने का मौका न आवे ऐसा कार्य करने में हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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