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________________ निग्रन्थ-प्रवचन भावार्थ:-हे गौतम ! अब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद कहते हैं। सो सुनो-(१) श्रतज्ञानावरणीय क्रम जिसके द्वारा ज्ञान शक्ति आदि में न्यूनता हो । (२) मलिशानावरणीय जिसके द्वारा समझाने की शक्ति कम हो (३) अवधिज्ञानावरणीय-जिसके द्वारा परोक्ष की बातें जानने में न आवे (४) मनः पर्यवज्ञानावरणीप-- दूसरों के मन की बात जानने में शक्तिहीन होना (५) केवलज्ञानावरणीय-संपूर्ण पदार्थों के जानने में असमर्थ होना । ये सब ज्ञानावरणीय कर्म के फरन हैं। हे गौतम ! अब ज्ञानवरणीय कर्म बंधने के कारण बताते हैं, सो सुनो (१) ज्ञानी के द्वारा बताये हुए तत्त्वों को असत्य बताना, तथा उन्हें असत्य सिद्ध करने की चेष्टा करना (२) जिस ज्ञानी के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका नाम तो छिपा देना और मैं स्वयं ज्ञानवान् बना हूँ ऐसा वातावरण फैलाना (३) ज्ञान की असारता दिखलाना कि इस में पड़ा ही क्या है ? आदि कह कर ज्ञान एवं ज्ञानी को अवज्ञा करना (४) शाती से द्वेष भाव रखते हुए कहना कि वह पल है है ? कुनही । रानडगी होकर इ.ानी ईद का दम भरता है, आदि कहना । (५) जो कुछ सीख पढ़ रहा हो उसके काम में बाधा डालने में हर तरह से प्रयत्न करना (६) ज्ञानी के साथ अण्ट सण्ट बोल कर व्यर्थ का झगड़ा करना । आदि-आदि कारणों से ज्ञानाबरणीय कर्म बंधता है । मूलः-निदा तहेव पयला; निहानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो अ थाणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ॥५॥ चक्नुमचक्खू ओहिस्स, दसओ केवले अ आवरणे । एवं तु नवविगप्प, नायव्वं दसणावरणं ।।६।। छापा:-निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचला च । ततश्च स्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमा भवति ज्ञातव्या ।।५।। चक्षुरचक्षुरवधेः दर्शने केवले चावरणे । एवं तु नवविकल्प, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (निदा) सुख पूर्वक सोना (तहेव) से ही (पयला) बैटे बैठे अंघना (य) और (निदानिहा) खूब गहरी नींद (म) और (पयल
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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