SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म निरूपण १५ पला ) चलते चलते कंचना (तत्ती अ ) और इसके बाद (पंचमा) पांचवीं (याण गिट्टी उ) स्त्यानगृद्धि (होई) है, ऐसा (नामच्या) जानना चाहिये (चतुभचक्खू ओहिस्स) चक्षु, अचक्षु, अवधि के ( दंसणं ) दर्शन में (य) और ( केवले) केवल में (आवरण) आवरण ( एवं तु) इस प्रकार ( नवबिगप्पं ) नौ भेदवाला ( दंसणावरणं) दर्शनावरणीय कर्म (नायचं) जानना चाहिए । भावार्थ :- हे गौतम! अब दर्शनावरणीय कर्म के भेद बतलाते हैं, सो सुनो से युक्त होना (२) बैठे-बैठे कंचना भी कठिनता से जागना ( ४ ) चलतेषो (१) अपने बाप ही नियत समय पर निद्रा अर्थात् नींद लेना (३) नियत समय पर फिरते ॐ घना और (() स्वाद ये सब दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। इसके सिवाय वक्ष में दृष्टिमान्य या अन्धेपन आदि प्रकार की होनता का होना तथा सुनने की, सूचने की, लेने की, स्पर्श करने की शक्ति में हीनता अवधिदर्शन होने में और केवलदर्शन अर्थात् सारे जगत को हाथ की रेखा के समान देखने में रुकावट का आना ये सब के सब नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। हे आये ! जब आत्मा दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है तब वह जीव कपर कड़े हुए फलों को भोगता है। अब हम यह बतायेंगे कि जीव फिन कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बाँध लेता है । सुनो- (१) जिसको अच्छी तरह से दीखता है उसे भी अन्धा और काना कह कर उसके साथ विरुद्धता करना ( २ ) जिसके द्वारा अपने नेत्रों को फायदा पहुँचा हो और न देखने पर भी उस पदार्थ का सच्चा ज्ञान हो गया हो उस उपकारों के उपकार को भूल जाना (३) जिसके पास चक्षु ज्ञान से परे अवधिदर्शन है, जिस अवधिदर्शन से वह कई भव अपने एवं औरों के देख लेता है । उसको अवज्ञा करते हुए कहना कि क्या पड़ा है ऐसे अवधिदर्शन में ? (४) जिसके दुखते हुए नेत्रों के अच्छे होने में वा चक्षुदर्शन से भिनयचक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन में और अवधिदर्शन के प्राप्त होने में एवं सारे जगत् को हस्तामलकवत् देखने वाले के दर्शन प्राप्त करने में रोड़ा अटकाना । (५) जिसको नहीं दिखता है या कम दिखता है, उसे कहे कि इस धूर्त फो अच्छा दिखता है तो भी अन्धा बन बैठा है । चक्षुदर्शन से भिन्न अचक्षुदर्शन का जिसे अच्छा बोध नहीं होता हो उसे कहे कि जान-बूझ कर मूर्ख बन रहा है । और जो अवधिदर्शन से भव भवान्तर के कर्त्तव्यों को जान लेता है उसको कहे कि ढोंगी है। एवं केवलदर्शन से जो प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण करता है
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy