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________________ ¦ निर्मम्य-प्रवचन अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! परमाधामी देव नरक में (बालस्स) अज्ञानी के (सुरेश) छुरी से (नक्कं ) नाक को (दिति) छेदते हैं । ( उट्टे वि) ओठों को भी और (दुवे) दोनों (कन्ने) कानों को (वि) मी (चिदति ) छेदते हैं । तथा (वित्यिमित्तं) बेंत के समान लम्बाई भर ( जिम्मं ) जिल्ला को (विणिकस्स) बाहर निकाल करके ( तिक्खाहि ) तीक्ष्ण (सूला) शूलों आदि से ( अभिताजयंति ) छेदते हैं। २०६ भावार्थ:--- हे गौतम ! जो अज्ञानी जोन, हिंसा, झूठ, घोरी और व्यभिचार आदि करके नरक में जा गिरते है । असुर कुमार परमाधामी उन पापियों के कान नाक और ओठों को छुरी से लेते हैं । और उनके मुंह में से जिला को बेत जितनी लम्बाई भर बाहर खींच कर तीर भूली हैं। मूल:- ते तिप्पमाणा तलसंपुढं व्व, राइंदियं तत्थ थणंति बाला । गलंति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा || ६ ॥ छाया:-- ते तिप्यमाना तलसम्पुटइत्र, रात्रिन्दिवा तत्र स्तनान्त बालाः । गलन्ति ते शोणितपूतमांस, प्रद्योनिता क्षार प्रदिग्धांगाः ||६|| अन्वपार्थः - हे इन्द्रभूति ! ( तत्थ ) वहाँ नरक में (ते) वे ( तिप्पाणा ) रुधिर झरते हुए ( माला) अज्ञानी (राईदियं ) रात दिन (तलसंपुढं ) पवन से प्रेरित ताल वृक्षों के सूखे पत्तों के शब्द के (व) समान (थति) आक्रन्दन का शब्द करते हैं । (ते) वे नारकीय जीव (पज्जोइया) अग्नि से प्रज्वलित (खारपखियंगा) क्षार से जलाये हुए अंग जिससे ( सोणिअयमंसं ) रुधिर, रसी और मांस (गति) शरते रहते हैं। भावार्थ:- हे गौतम! नरक में गये हुए उन हिंसादि महान् आरम्भ के करने वाले नारकीय जीवों के नाक, कान आदि काट लेने से रुधिर बहता रहता
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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