SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नरक-स्वर्ग-निरूपण २०५ छाया:-तीयं बसान् प्राणिन: स्थावरान् वा, यो हिनस्ति आतापमुग्न प्रतीत्य ! यो लुषको भवति अदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (तसे) श्रम (या) और (पाषरे) स्थावर (पाणिणो) प्राणियों की (तिव्वं) तीवता से (हिसती) हिसा करता है, और (आयसुह) आरम सुख के (पडुच्च) लिए (जे) जो मनुष्य (लूसए) प्राणियों का उपमर्दक (होड) होता है। एवं (अदत्तहारी) नहीं दी हुई वस्तुओं का हरण करने वाला (किंचि) घोड़ा सा भी (सेयवियस्स) अंगीकार करने योग्य व्रत के पालन का (ण) नहीं (सिक्वती) अभ्यास करता है। वह नरक में जा कर दुम्न उठाता है। भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य, हसन चलन करने वाले अर्थात् प्रस तथा स्थावर जीवों को निर्दयतापूर्वक हिंसा करता है। और जो शारीरिक पौद्गलिक सुखों के लिए जीवों का उपमर्दन करता है। एवं दूसरों की चीजें हरण करने ही में अपने जीवन की सफलता समझता है। और किसी भी प्रत को अंगीकार नहीं करता, वह यहाँ से परकर नरक में जाता है । और स्व-कृत कर्मों के अनुसार वहाँ नाना मांति के दुख भोगता है । मूलः-छिदंति बालस्स खरेण नक्क, उठू वि छिदति दुवेवि कण्ण । जिब्भ विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्वाहिसूलाभितावयंति ।।५।। छाया:-छिन्दन्ति बालस्य क्षरेण नासिकाम, औष्ठावपि छिन्दन्ति द्वावपि कर्णा । जिह्वां विनिष्कास्य वितस्तिमात्र, पक्षणः शूलादभितापयन्ति ॥५॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy