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________________ नरक-स्वर्ग-निरूपण २०७ है और वे रात-दिन बड़े आक्रन्दन स्वर से रोते हैं। और उस छेदे हए अंग को अग्नि से जलाते हैं। फिर उसके कपर लवणादिक क्षार को छिटकते हैं। जिससे और मी विशेष रुधिर पूम और मांस भरता रहता है। मूलः–रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे, भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता । पयंति णं णेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले ॥७॥ छाया:-रुधिरे पुनो वर्चः समुच्छिलाङ्गान्, भिन्नात्तमाङ्गान् परिवर्तयन्तः । पचन्ति नैरयिकान् स्फुरतः, सजीवमत्स्यानिवायः कटाहे |७|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पुणों) फिर (वच्च) दुर्गन्ध मल से (समु. स्सिअंगे) लिपटा हुआ है अग जिनका और (भिन्नुत्तमंगे) सिर जिनका छेवा हुआ है ऐसे नारकीय जीवों का खून निकालते हैं और (रुहिरे) उसी खून के तगे हुए कड़ाहे में उम्हें चलकर (परिवत्तयत्ता) इधर-उघर हिलाते हुए परमाघामी (पर्मति) पकाते हैं। तब (णेरइए) नारकीय जीव (अयोकवल्ले) लोहे के काहे में (सजीव गच्छव) सजीव मच्छी की तरह (फुरते) तड़फड़ाते हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! जिन आत्माओं ने शरीर को आराम पहुँचाने के लिए हर तरह से अनेकों प्रकार के जीवों की हिंसा की है, वे आत्माएँ नरक में जाकर जब उत्पन्न होती हैं, तव परमाधामी देव दुर्गन्ध युक्त वस्तुओं से लिपटे हुए उन नारकीय आत्माओं के सिर छेदन कर उन्हीं के शरीर से खून निकाल उन्हें तप्त कड़ाहे में डालते हैं और उन्हें खूब ही उबाल करके जलाते हैं। असुर कुमारों के ऐसा करने पर वे नारखीय आत्माएं उस तपे हुए कड़ाहे में सप्त तवे पर गली हुई सजीव मछली की तरह तड़फड़ाती हैं।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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