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________________ लेण्या स्वरूप १४७ भावार्थ:-हे आर्य } तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीनों, ज्ञानी जन द्वारा धर्म लेश्याएं (धर्म मावनाएं) कही गयी है। इस प्रकार धर्म मावना रखने से वह जीप यहाँ भी प्रशंसा का पात्र होता है, और मरने के पश्चात् भी वह सुगति ही में जाता है । अतएव मनुष्यों को चाहिए कि वे अपनी भावनाओं को सका शुम या शुद्ध रक्खें । जिससे उस आत्मा को मोक्ष धाम मिलने में विलम्ब न हो। मुला-अन्तमुहत्तम्मि गए, अंतमुहत्तम्मि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।।१६।। छाया:-अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्त महत्तै शेषे चंव । लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम् ॥१६॥ अग्वयार्थः- हे इन्द्रमति ! (परिणयाहि परिणमित हो गयी है (लेसाहि) लेण्या जिसके ऐसा (जीचा) जोय (अलमुहुत्त म्मि) अन्तमु हूत (गए) हान पर (धेष) और (अंतमुत्तम्मि) अन्तर्मुहर्त (सेसए) अवशेष रहने पर (परलोयं) परलोक को (गल्छति) जाते हैं। भावार्थ:-हे आर्य ! मनुष्य और तिर्यञ्चों के अन्तिम समय में, योग्य वा अयोग्य, जिस किसी भी स्थान पर उन्हें जाना होता है उसी स्थान के अनुसार उनकी भावना मरने के अन्त मुहूर्त पहले आती है और वह भावना उसने अपने जीवन में भले और बुरे कार्य किये होंगे उसी के अनुसार अन्तिम समय में सी ही लेश्मा (मावना) उसकी होगी और देवलोक तथा नरक में रहे हुए देव और नेरिया मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले अपने स्थानानुसार लेश्या (मावना) ही में मरेंगे । मूलः-तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभाव बियाणिया । अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसस्थाओऽहिट्ठिए मुणी 11१७|| छाया:-तस्मादेतासां लेश्यानां, अनुभावं विज्ञाय । अप्रशस्तास्तु वर्जयिस्वा, प्रशस्ता अघितिष्ठन् मुनिः ॥१७॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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