________________
प्रमाद- परिहार
मूल:-- दुल्ल हे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो,
समयं गोयम ! मा पमायए ||४||
१११
छाया:-- दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । गादाश्च विपाकाः कर्मणां समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥
अन्वयार्थ :- ( गोयम !) हे गौतम ! (सम्वपाणिणं) सब प्राणियों को (चिरकाले चि) बहुत काल से भी ( खलु ) निश्चय करके ( माणुसे) मनुष्य (मये) सब (दुल्हे) मिलना कठिन है । (य) क्योंकि (कम्भुणो ) कर्मों के ( विभाग) विपाक को (गाढा) नाश करना कठिन है । अतः (समय) समय मात्र का ( मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ :- हे गौतम! जीवों की एकेन्द्रिय आदि योनियों में इधर-उधर जन्मते मरते हुए बहुत काल गया । परन्तु दुर्लभ मनुष्य जन्म नहीं मिला । क्योंकि मनुष्य जन्म के प्राप्त होने में जो रोड़ा अटकाते हैं ऐसे कर्मों का विक नाश करने में महान् कठिनाई है। अतः हे गौतम! मानव देह पाकर पल मर भी प्रमाद मत कर !
मूलः --- पुढविकाय मइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं समयं गोयम ! मा पमायए ||५||
छाया:- पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यातीतं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||५||
अभ्ययार्थ:-- ( गोयम !) हे गौतम! ( पुढविकायमगओ) पृथ्वीकाय में गया हुआ (जीवो) जीव ( उक्कोस) उत्कृष्ट ( संखाईम) संख्या से अतीत अर्थात् असंख्य (काल) काल तक (सबसे) रहता है। अतः ( समयं ) समय मात्र का ( मा पमायए) प्रमाद मत कर ।