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साधर्म-निरूपण मुल:- पि वत्थं व पाय वा कम्बलं पायपुच्छणं ।
तं पि संजमलज्जट्टा, धारेन्ति परिहरति य ।।६।। | छापा:-यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपुन्छनम् ।
तदपि संयमलज्जार्थम्, धारयन्ति परिहरन्ति च ॥६।। सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (पि) मी (वत्यं) वस्त्र (वा) अथवा (पाय) पात्र (वा) अथवा (कम्बलं) कम्बल (पायच्छणं) पग पोंछने का वस्त्र (स) उसको (पि) मी (संजमलज्जट्ठा) संयम लज्जा 'रक्षा' के लिए (धारेन्ति) लेते हैं (य) और (परिहरति) पहनते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! अब यह कह दिया कि कोई भी वस्तु नहीं रखना और पस्त्र पात्र वगैरह साधु रखते है, तो मला लोम के संबंध में इस जगह सहज ही प्रश्न उठता है । किन्तु जो संयम रखने वाला साधु है, वह केवल संयम की रक्षा के हेतु वस्त्र पात्र वगैरह लेता है और पहनता है। इसलिए संयम पानने के लिए उसके साधन वस्त्र, पात्र वगैरह रखने में लोम नहीं है क्योंकि मुनियों को उनमें ममता नहीं होती।
|| सुधर्मोवाच ॥ मूलः न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्ते ण ताइणा।
मुच्छा परिंगहो वुत्तो, इइ वुत्त महेसिणा ।।७।। बायाः- सः परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिणा ।
मूपिरिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ॥७।। अन्वयार्थः हे जम्बू ! (सो) संयम की रक्षा के लिए रखे हुए वस्त्र, पात्र वगरह हैं उनको (परिंग्गहो) परिग्रह (ताइणा) त्राता (नावपुतण) महावीर (न) नहीं (वुत्तो) कहा है, किन्तु उन वस्तुओं पर (मुम्छा) मोह रखना वही (परिगहो) परिग्रह (वृत्तो) कहा जाता है (इइ) इस प्रकार (महेसिणा) तीर्थंकरों मे (वृत्त) कहा है।