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________________ निग्रंन्य-प्रवचन छायाः-मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम् । तस्मान्मथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्थाः परिवर्जयन्तितम् ॥४॥ अग्नपार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एमं) यह (मेगुणसंसग्गं) मैथुन विषयक संसर्ग (अहम्मस्स) अधर्म का (मूस) मूल है । और (महादोससमुस्सयं) महान् दूषित हिमानों को अच्छी तरह से मढ़ाने ला है। (सहा पसलिए (निग्गंगा) निग्रंन्य साधु मथुन संसर्ग को (वअयंति) छोड़ देते हैं । (i) दाक्यालंकार में। भावार्थ:-हे गौतम ! यह अब्रह्मचर्य अधर्म उत्पन्न कराने में परम कारण है, और हिंसा, झूठ, पोरी, कपट आदि महान् दोषों को खूब बढ़ाने वाला है। इसलिए मुनिधर्म पालने वाले महापुरुष सब प्रकार से मथुन संसर्ग का परिरमाय कर देते हैं। मूल:--लोभस्से समणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहीकामे गिही पवइए न से ॥५॥ छाया:-लोभस्यष अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि । य: स्यात् सनिधि कामयेत्, गृही प्रवजितो न सः ॥५॥ अन्वयार्पः-हे इन्द्रभूति ! (लोमस्स) लोम की (एस) यह (अणुप्फासो) महत्ता है कि (अमायरामवि) गुड़, घी, शक्कर आदि में से कोई एक पदार्य को भी (जे) जो साधु होकर (सिया) कदाचित् (सग्निहीकामे) अपने पास रात मर रखने की इच्छा करले तो (से) वह (न) न तो (गिही) गृहस्थी है और न (पदइए) प्रवजित दीक्षित ही है, ऐसा तीर्थकर (मग्ने) मानते हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! लोम, चारित्र के सम्पूर्ण गुणों को नाश करने वाला। है। इसीलिए इसकी इतनी महत्ता है | तीर्थंकरों ने ऐसा माना है और कहा है कि गुड़, बी, शक्कर आदि वस्तुओं में किसी भी वस्तु को साधु हो कर ।। कदाचित् अपने पास रात भर रखने की इच्छा मात्र करे था औरों के पास रखवा लेवे तो वह गृहस्थ भी नहीं है क्योंकि उसके पहनने का बेच साधु का है और वह साधु मी नहीं है क्योंकि जो साघु होते हैं। उनके लिए उपरोक्त कोई । भी चीजें रात में रखने की इच्छा मात्र भी करना मना है। अतएव साधु को ।। दूसरे दिन के लिए खाने तक की कोई वस्तु का भी संग्रह करके न रखना चाहिए।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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