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________________ २२० निग्रन्थ-प्रवचन मूलः -- तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उवेंति माणुस जोगिऐ दशनाई ॥३१५ छाया: - तत्र स्थित्वा यथास्थानं यक्षा आयुः क्षये च्युताः । उपयान्ति मानुषीं योनि स दशांगोऽभिजायते ||३१|| P अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (तत्य) यहां देवलोक में ( जक्खा) देवता ( जहा ठाणं) यथास्थान (ठिच्चा ) रह कर ( आउस्लए) आयुष्य के क्षय होने पर वहाँ से (च्या) व्यव कर ( माणूस) मनुष्य (जोणि) योनि को ( उवेंति) प्राप्त होता है। और जहाँ जाती है वहाँ (से) वह (दसंगे) दस अंगवाला अर्थात् समृद्धिशासी ( अभिज्ञायई) होता है । भावार्थ: है गौतम यह जो आत्माएं शुभ कर्म करके स्वर्ग में जाती हैं, वहाँ अपनी आयुष्य को पूरा कर अवशेष पुण्यों से फिर से मनुष्य योनि को प्राप्त करती है । जिसमें भी यह समृद्धिशाली होती है । इस कथन का यह आशय नहीं समझना चाहिए कि देव गति के बाद मनुष्य ही होता है । देव तिर्यंच भी हो सकता है और मनुष्य मी, परन्तु यहाँ उत्कृष्ट आत्माओं का प्रकरण है इसी कारण मनुष्य गति की प्राप्ति कही गई है । मूल:-- खित्तं वत्युं हिरण्णं च पसवो दासपोरुसं । चत्तारि कामखंघाणि, तत्थ से उववज्जई ॥ ३२ ॥ छाया: -- क्षेत्रं वास्तु हिरण्यञ्च पशवा दासपौरुषम् । कामस्कन्धाः, तत्र स उत्पद्यते ॥ ३२ ॥ चत्वारः , (१) एक वचन होने से इसका आशय यह है अन्यत्र कहे हुए हैं । उनमें से देवलोक से व्यय कर कितनी आत्माओं को तो समृद्धि के नौ ही अंग प्राप्त होते हैं को आठ । इसीलिये एक वचन दिया है । कि समृद्धि के दश अंग मृत्यु सोक में जाने वाली और किसी -
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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