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________________ मरक-स्वर्ग-निरूपण २१६ अन्वयार्य:--हे इन्द्रभूति ! (विसालिसेहि) विसदृश अर्थात भिन्न-भिन्न (सोलेहि) सदाचारों से (उत्तरउत्तरा) प्रधान से प्रधान (महासुक्का) महाशुक्ल अर्थात बिलकुल सफेद चन्द्रमा की (ब) तरह (दिप्पंता) देदीप्यमान् (अपुणचवं) फिर चवना नहीं ऐसा (मण्णता) मानते हुए (कामरूपविउविणो) इच्छित रूप से बनाने वाले (बहू) बहुत (पुवावाससया) संकड़ों पूर्व वर्ष पर्यंत (उड) ऊंचे (कप्पेसु) देवलाक में (दयकामाथ) देवताओं के सुख प्राप्त करने के लिए (अप्पिया) अर्पण कर दिये हैं सदाचार रूप व्रत जिनने ऐसी आरमाएं (जक्खा) देवता बनकर (चिट्ठति) रहती हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! बात्मा अनेक प्रकार के समाचारों का सेवन कर स्वर्ग में जाती है । तब वह वहां एक से एक देदीप्यमान् शरीरों को धारण करती है। और वहाँ दश हजार वर्ष से लेकर कई सागरोपम तक रहती हैं। वहाँ ऐसी आत्माएं देवलोक के सुखों में ऐसी सीन हो जाती हैं, कि वहाँ से अब मानो वे कभी मरेंगी ही नहीं, इस तरह से घे मान बैठती हैं । मल:--जहा कुसग्गे उदग, समुण समं मिणे । __ एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥३०॥ छायाः-यथा कुशाग्ने उदक, समुद्रण समं मिनुयात् । एवं मानुष्यका: कामाः देवकामानामन्तिके ॥३०॥ बन्वयार्य:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (कुसग्गे) घास के अग्रमाग पर फी (उदर्ग) जल की वू'द का (समुद्दे ण) समुद्र के (सम) साप (मिणे) मिलान किया जाय तो क्या वह उसके बराबर हो सकती है ! नहीं (एवं) ऐसे ही (माणुस्सगा) मनुष्य सम्बन्धी (कामा) काम भोगों के (अंतिए) समीप (देवकामाणं) देव सम्बन्धी काम मोगों को समझना चाहिए। भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार घास के अग्रभाग पर की जल को बूंद में और समुद्र की जलराशि में भारी अन्सर है । अर्थात् कहाँ तो पानी की बंद और कहाँ समुद्र की जल राशि! इसी प्रकार मनुष्य सम्बधी काम मोगों के सामने देव सम्बन्धी काम भोगों को समाप्सना पाहिए। सांसारिक सुख का परम प्रकर्ष बताने के लिए यह कथन किया गया है । मात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य भव वेवमय से श्रेष्ठ है।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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