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________________ ५८ निग्रंन्य-प्रवचन को (जागइ) जानता है । (उमयं पि) और दोनों को मी (सोच्चा) सुनकर (जाणई) जनता है। (ज) जो (छेयं) अच्छा हो (त) उसको (समायरे) अंगीकार करे। भावार्थ:-हे गौतम ! सुनने से हित-अहित, मंगल-अमंगल, पुण्य और पाप का बोध होता है । और बोध हो जाने पर यह आत्मा अपने आप श्रेयस्कर मार्ग को अंगीकार कर लेता है। और इसी के आधार पर आखिर में अनंत सुखमय मोक्षधाम को भी यह पा लेता है। इसलिए मर्षियों ने श्रुतज्ञान ही को प्रथम स्थान दिया है। मूल:--जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥६॥ छाया:- यथा शूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यते। तथा जीव: ससूत्रः, संसारे न विनश्यते ॥६॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (ससुत्ता) सूत्र सहित-धागे के साथ (पडिआ) गिरी हई (सूई) सूई (न) नहीं (विणस्सइ) खोती है। (तहा) उसी तरह (ससुत्ता) सूत्र श्रुत-ज्ञान सहित (जीवे) जीव (संसारे) संसार में (वि) मी (न) नहीं (विणस्सइ) नाश होता है। भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार धागे बाली सुई गिर जाने पर भी खो नहीं सकती, अर्थात् पुन: शीन मिल जाती है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान संयुक्त आत्मा कदाचित् मिथ्यात्वादि अशुभ कर्मोदय से सम्यक्त्व धर्म से च्युत हो भी जाय तो वह आस्मा पुनः रनत्रय रूप धर्म को शीघ्रता से प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञानवान् आत्मा संसार में रहते हुए भी दुःखी नहीं होता अर्थात् समता और शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करता है। मूल:--जावंतऽविज्जापुरिसा, सब्चे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मुढा, संसारम्मि अणंतए ।।७।। छाया:--यावन्तोऽविधा:पुरुषाः, सर्वे ते दुःखसंभवाः । लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारे अनन्तके ।।७।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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