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प्रमाद-परिहार
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अन्वयार्प:----(गोयम !) हे गौतम ! (अकलेवरसणि) कलयर रहीं होने में सहायक भूत श्रेणी को (सिआ) बढ़ा कर अर्थात् प्राप्त कर (खेमं) पर चक्र का भय रहित (च) और (सिव) उपद्रव रहित (अणुत्तर) प्रधान (सिदि) सिद्ध (लोय) लोक को (गम्छसि) जाना ही है, फिर (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सिद्ध पद पाने में जो शुम अध्यवसाय रूप क्षपक श्रेणि सहायमूत है, उसे पाकर एवं उत्तरोत्तर उसे बढ़ाकर, भय एवं उपद्रव रहित बटल सुखों का जो स्थान है, वहीं सुझे जाना है। अतः हे गौतम ! धर्म आराधना करने में पल मात्र की भी ढील मत कर।
इस प्रकार निमंन्य की ये सम्पूर्ण शिक्षाएं प्रत्येक मानव देह-धारी को अपने लिए भी समझनी चाहिए और धर्म की आराधना करने में पल भर का भी प्रमाद कभी न करना चाहिए।
॥ इति दशमोऽध्यायः ।।