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________________ ( २४ ) संयमी होना, मर्मभेदी वचन न कहना, निश्शील न होना, निदोष शीलयुक्त होना, अलोग्नुपता, क्रोधहीनता, सत्यरति । मुनि को संत्र-मंत्र करना, स्वप्न के फल बताना, हाथ की रेखाएं देखकर शुभ-अशुभ कहना इत्यादि पनड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। पापी घोर नरक में पड़ते हैं और आर्य – श्रेष्ठ-धर्मी दिव्य गति प्राप्त करते हैं । इस प्रकार इस अध्याय में मुनि जीवन के योग्य विविध शिशाएं संगृहीत की गई हैं, जिनका उल्लेख बिस्तारभय से ग्रहां नहीं किया जा सकता । (१७) पर अनेक स्थलों पर सदाचार का फल देवगति और असदाचार का फल नरकगनि कहा गया है। इम अध्याय में इन दोनों गतियों का स्वरूप बताया गया है। नरक गति कहाँ है, उसका स्वरूप क्या है, कौन जीव वहाँ जाते हैं, कैसी-कैसी भीषण वेदनाएँ नारकी जीवों को सहनी पड़ती है आदिआदि बातें जानने के लिए इस अध्याय को अवश्य पढ़ना चाहिए । इसी प्रकार देवगति का भी इसमें सुन्दर वर्णन है और अन्त में कहा गया है कि समुद्र और पानी की एक बुंद मे जितना अन्तर है उतना ही अन्तर देवगति और मनुष्य गति के सुखों में है। (१८) शिष्य को गुरु के प्रति, पुत्र को पिता के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए, तथा मुक्ति क्या है, यही विषय मुख्य रूप से इस अध्याय का प्रतिपाय विषय है। विनीत शिष्य वह है जो अपने गुरु की आज्ञा पाले, उनके समीप रहे, उनके इशारों से मनोभावों को ताड़कर वर्त । गुरुजी कभी शिक्षा दें तो कुपित न हो, शान्ति से स्वीकार करे । अज्ञानियों से संसर्ग न रखें। अपने आसन पर बैठे-बैठे गुरुषी से कोई प्रश्न न पूछे बल्कि सामने आकर, हाथ जोड़कर, विनय के साथ पूछे। गुरुजी कदाचित् नर्म-गर्म बात कहें तो अपना लाभ समझकर उसे स्वीकार करे । इसके विपरीत जो क्रोधी होता है, कलहोत्पादक बातें करता है, शास्त्र पढ़कर अभिमान करता है, मित्रों पर भी कुपित होता है असंबद्ध भाषी एवं धमण्डी होता है. तथा अन्यान्य ऐसे ही दोषों से दूषित होता है वह अविनीत शिष्य कहलाता है । विनीत शिष्य में पन्द्रह गुणों का होना आवश्यक है। (गाथा ६-१२) अनन्तज्ञान प्राप्त करके भी अपने गुरु की सेवा अवश्य करनी चाहिए। कदाचित् आचार्य कुपित हो जाएँ तो उन्हें मना लेना चाहिए।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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