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है । जिस महात्मा ने मन को जीत लिया, समझ लीजिए उसने इन्द्रियों और कषायों को भी जीत लिया। मन, माहसी, भयंकर, दुष्ट अश्व की भांति चारों तरफ दौड़ता रहता है । इसे धर्म-शिक्षा से अधीन करना चाहिए । संयमी का कर्तव्य है कि वह मन को असस्य विषयों से दूर रखे, संरंभ समारंभ में इसकी प्रवृत्ति न होने दे ।।
पराधीनता के कारण जो लोग वस्त्र, गंध या अलंकार आदि को नहीं भोगते वे त्यागी की परमोच्च पदवी पर प्रतिष्टित नहीं हो सकते 1 बल्कि स्वाधीनता से प्राप्त कान्त और प्रिय मोगों को जो लात मार देता है, वही त्यागी कहलाता है। राम भात्र से विचरने पर भी यदि चपल मन कदाचित संयम-मार्ग से बाहर निकल जाय तो धार्मिक भावनाओं से उसे पुनः यथास्थान लाना चाहिए।
हिंसा, अमत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रिभोजन से विरत जीव ही मानव से बच सकता है। किसी तालाब में नया पानी प्रवेश न करें और पुराना पानी उलीच कर या सूर्य की घप से सुखा डाला जाय तो तालाब निर्जल हो जाता है इसी भांति नवीन कमों के आत्रक को रोक देने से सथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने से जीव निश्कर्म हो जाता है। निर्जरा प्रधानतः तपस्या से होती है । तपस्या दो प्रकार की है :---(१) वाह्य और (२) आभ्यन्सर । इनका विवेचन प्रसिद्ध है। रूप-गद्ध जीव पतंग की मांति शब्द-गद्ध जीव हिरन की तरह, गंध-गस जीव सर्प की भांति, रसलोलुप मत्स्य की नाई, और स्पर्श-सुखाभिलापी ग्राह-ग्रस्त में से की तरह अकाल-मरण-दुःख को प्राप्त होता है।
(१६) एकान्त में स्त्री के पास नहीं खड़ा होना चाहिए और न उससे बातचीत करनी चाहिए । कभी वस्त्र मिले या न मिले, पर दुःखी नहीं होना चाहिए । यदि कोई निन्दा करे तो मुनि ऋोप न करे, कोप करने मे वह उन्हीं बाल-जीवों जमा हो जायगा । श्रमण को कोई ताड़ना करे तो विचारमा चाहिए कि आत्मा का नाश कदापि नहीं हो सकता । अपने जीवन को समाप्त करने के लिए पास्त्र का उपयोग करना, विष भक्षण करना, जल या अग्नि में प्रवेश करना, जन्म-मरण की-संसार की वृद्धि करता है।
पांच कारणों से जीव को शिक्षा नहीं मिलती-क्रोध, मान, आलस्य, रोग और प्रमाद से। आट गुणों से शिक्षा की प्राप्ति होती है :-हसोड़ न होना,