SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३) इस अध्याय में कषाय का वर्णन है। क्रोध आदि चार कषाय पुनजन्म की जड़ को हरा-भरा करते हैं। क्रोधी, मानी और मायावी जीव को कहीं शान्ति नहीं मिलती। लोभ पाप का बाप है। कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत सोने-चांदी के खड़े कर दिये जावे तो भी लोभी को संतोष न होगा । क्योंकि तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है। तीन लोक की सारी पृथ्वी, धनधान्य, आदि तमाम विभूति यदि एक ही आदमी को प्रदान कर दी जाय तो नी लोगो को व पर्याय होती . तर कानाः का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। कोध, मान, माया और लोभ से संसार में भ्रमण करना पड़ता है। क्रोध प्रीति को, मान विनय को, माया मित्रता को और लोम सब सद्गुणों को नाश करता है । अतएव क्षमा आदि सदगुणों मे इन्हें दूर करना चाहिए। कौन जाने परलोक है भी या नहीं ? परलोक किसने देखा है ? विषय-सुख प्राप्त हो गया है तो अप्राप्त के लिए प्राप्त को क्यों स्यामा जाय ? ऐसा विचार करने वाले बालजीव अन्त में दुःखों के गड्ढे में गिरते हैं। जैसे सिंह मृग को पकड़ लेता है वैसे ही मृत्यु मनुष्य को घर दबाती है। यह मेरा है, यह तेरा है, यह करना है, यह नहीं करना है, ऐसा विचारते-विचारते ही मौत अचानक आ जाती है और यह जीवन समाप्त हो जाता है। (१४) जागो, जागो, जागते क्यों नहीं हो ? परलोक में घमं-प्राप्ति होना कठिन है। क्या बूढ़े, क्या बालक, सभी को काल हर ले जाता है । कुटुम्बीजनों की ममता में फंसे हुए लोगों को संसार में भ्रमण करना पड़ता है । कृतकर्मों से भोगे बिना पिंड नहीं छटता । जो क्रोधादि पर विजय प्राप्त करते हैं, किसी प्राणी का हनन नहीं करते-बही वीर है। गृहस्थी में रहकर भी यदि मनुष्य संयम में प्रवृत्त होता है तो उसे देवगति मिलती है। अतएव बोध को प्राप्त करो । कछुए की भाँति संहृतेन्द्रिय बनो । मन को अपने अधीन करो। भाषा सम्बन्धी दोषों का परित्याग करो। समस्त ज्ञान का सार और सारा विज्ञान अहिंसा में ही समाप्त हो जाता है। अतः ज्ञानीजन' हिंसा से सदा बचते हैं। कर्म से कर्म का नाम नहीं होता अकर्म-अहिंसा बादि-से ही कर्मों का क्षय होता है । मेधावी निष्कषाय पुरुष पापों से दूर ही रहते हैं । इन्द्रभूति ! तत्त्वज्ञानी वह है जो क्या बालक और क्या युद्ध -सभी को आत्मवत् दृष्टि से देखता है और प्रमाद-रहित हो संयम को स्वीकार करता है। (१५) मन अत्यन्त दुर्जेय है। मन ही बंष और मोक्ष का प्रधान कारण
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy