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________________ को घेरे हुए है, शरीर समय-समय नष्ट हो रहा है, अतः गौतम ! प्रमाद न कर । गौतम ! जल में कमल की नाई निलेप बन जा, स्नेह-वृत्ति को छोड़। धन-धान्य, स्त्री-पुत्र आदि का परित्याग करके तू ने अनगारिता धारण की है, उनकी पुन: कामना न करना' । इस प्रकार का प्रभावशाली वर्णन' पढ़कर कौन क्षणभर के लिए भी विरक्त न हो जायगा। यह सम्पूर्ण अध्याय नित्य प्रातःकाल पठन करने की चीज है । (११) इस अध्याय में भाषण के नियम प्रतिपादन किये गए है-(१) सत्य होने पर भी जो बोलने के अयोग्य हो, (२) जिसमें कुछ भाग सस्य और कुछ असत्य हो—ऐसी मिश्र भाषा, (३) जो सर्वया असत्य हो, ऐसी तीन प्रकार की भाषा बुद्धिमानों को नहीं बोलनी चाहिए। व्यवहारभाषा, अनवध भाषा, कर्कशता तथा संदेहरहित भाषा बोलनी चाहिए। काने को काना कहना आदि दिल दुखाने वाली भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। क्रोध, मान, माया, लोभ, भम आदि से भी नहीं बोलना चाहिए। विना पूछे, दूसरे बोलने वाले के बीच में न बोले, चुगली न करे।। __ मनुष्य काँटों को प ता है पर ..:-.4 गन कला पद है, पर उत्तम मनुष्य वही है जो इन्हें सह ले । कांटे थोड़ी देर तक दुःख देते हैं, पर वाककण्टक वैर को बढ़ाने वाले, महान भय-जनक होते है। इनका निकलना कठिन होता है । इसी प्रकार प्रत्यक्षा-परोक्ष में अवर्णवाद करने वाली, भविष्य की निश्चयात्मक, अप्रियकारिणी भाषा भी न बोलनी चाहिए। बुरी प्रवृत्ति का त्याग कर अच्छी प्रवृत्ति में लीन रहना चाहिए । जनपद आदि सम्बन्धिनी भाषा सत्य है। क्रोधादिपूर्वक बोली हुई भाषा असत्य है। यह लोक देवनिर्मित है, ब्रह्म-प्रयुक्त है, ईश्वरकृत है, प्रकृति द्वारा बनाया गया है, स्वयम्मु ने रचा है, अत: अशाश्वत है, ऐसा कहना असत्य है- अर्थात् लोक अनादिनिधन है, किसी का बनाया हुआ नहीं है। (१२) इस अध्याय में लेश्या-सिद्धान्त का निरूपण किया गया है । कषाय से अनुरंजित मन, वचन, काय को प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। कर्मबन्ध में यह कारण है। इसके अः भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । कैसे-कैसे परिणाम वाले को कौन-कौनसी लेश्या समझनी चाहिए, इसका अच्छा निरूपण इरा अध्याय में है। मुमुक्षु जीवों को इस वर्णन' के आधार पर सदा अपने व्यापारों की जांध करते रहना चाहिए और अप्रशस्त लेश्याओं से बचना चाहिए।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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