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________________ निर्ग्रन्थ-प्रवचन अन्वयार्ष-हे इन्द्रभूति' ! (अप्पाणमेय) आत्मा के साथ ही (जुज्माहि) मुद्ध कर (ते) तुझे (बज्झओ) दूसरों के साथ (जुझेण) युद्ध करने से (किं) क्या पड़ा है ? (अप्पाणमेव) अपने आत्मा ही के द्वारा (अप्पाणं) आत्मा को (जइत्ता) जीतकर (सुई) सुख को (एहए) प्राप्त करता है । भावार्ष-हे गौतम अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करके क्रोध, मद, मोहादि पर विजय प्राप्त कर। दूसरों के साथ युद्ध करने से कर्म-बन्ध के सिवाय आत्मिक लाभ कुछ भी नहीं होता है। अतः जो अपनी आत्मा द्वारा अपने ही मन को जीत लेता है उसी को सुख प्राप्त होता है । मूल:-चिदियाणि कोहं, माणं भायं तहेव लोभं च । दुज्जयं चेव अपाणं, सब्वमप्पे जिए जियं ।।६।। छाया:-पंचेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभञ्च । दुर्जयं चैवात्मानं सर्वमात्मनि जिते जितम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुज्जयं) जीतने में कठिन ऐसे (पंधिदियाणि) पांचों इन्द्रियों के विषय (कोह) कोष (माण) मान (मायं) कपट (तहेब) वैसे ही (लोम) तृष्णा (चेत्र) सौर मी मिथ्यात्व अव्रतादि (च) और (अप्पाण) मन ये (सब्ब) सर्व (अप्पे) आत्मा को (जिए) जीतने पर (जियं) जीते जाते हैं ।। ___भावार्थ- हे गौतम ! जो भी पांचों इन्द्रियों के विषय और क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मन ये सब के सब दुर्जयो हैं 1 तथापि अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से इन पर अनायास ही विजय प्राप्त की जा सकती है। मूल:- सरीरमाहु नाव ति; जीबो बुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो; जं तरंति महेसिणो ||१०॥ छाया:-शरीरमाहुनौरिति जीव उच्यते नाविकः । संसारोऽर्णव उक्त:, यस्तरन्ति महर्षययः ॥१०॥ अन्वयार्थः- हे इन्द्रभूति ! यह (संसारो) संसार (अण्ण'वो) समुद्र के समान (वृत्तो) कहा गया है । इस में (सरीर) शरीर (नाव) नौका के सदृश है । (आहु ति) ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है। और उसमें (जीवो) आत्मा
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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