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________________ | षट् द्रव्य निरूपण का (दंतो ) दमन करना ( वरं ) प्रधान कर्त्तव्य है । नहीं तो (हं) मैं ( परेहि) दूसरों से ( बंधणे हि ) बन्धनों द्वारा (य) और (वहेहि ) ताड़ना द्वारा ( दम्मंतो) दमन (मा) कहीं न हो जाऊँ । भावार्थ - हे गौतम! प्रत्येक आत्मा को विचार करना चाहिए कि अपने ही आत्मा द्वारा संयम और तप से आत्मा को वश में करना श्रेष्ठ है । अर्थात् स्ववश करके आत्मा को दमन करना श्रेष्ठ है। नहीं तो फिर विषय-वासना सेवन के बाद कहीं ऐसा न हो कि उसके फल उदय होने पर इसी आत्मा को दूसरों के द्वारा बंधन आदि से अथवा लकड़ी, चाबुक, माला बरी आदि के घाव सहने पड़ें | मूलः – जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एवं जिणेज्ज अप्पा, एस सो परमो जओ ॥७॥ छायाः– यः सहस्रं सहस्राणाम्, संग्रामे दुर्जये जयेत् । एकं जयेदात्मानं, एपस्तस्य परमो जयः ॥ ७ ॥ ॥ अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति (जो ) जो कोई मनुष्य (दुज्जए) जीतने में कठिन ऐसे (संगामे) संग्राम में (सहस्साणं) हजार का (सहस्स) हजार गुणा अर्थात् दश लक्ष सुभटों को जीत ले उससे भी बलवान ( एगं) एक (बप्पा) अपनी आरमा करे (जिज्ज) जीते ( एस ) यह (सो) उसका (जओ) विजय ( परमो ) उत्कृष्ट है । भावार्थ:- हे गौतम ! जो मनुष्य युद्ध में दश लक्ष सुभटों को जीत ले उस से भी कहीं अधिक विजय का पात्र वह है जो अपनी आत्मा में स्थित काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और माया आदि विषयों के साथ युद्ध करके और इन सभी को पराजित कर अपनी आत्मा को काबू में कर ले | मूलः -- अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेवमप्पार्ण, जइत्ता सुहमेहए ||८|| छाया:- आत्मानैव युध्यस्व किं ते युद्धेन बाह्यतः । आत्मा नेवात्मानं जित्वा सुखमेधते ||८|
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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