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________________ नियंन्य-प्रवचन अपने शस्त्र से दूसरों के प्राण हरण करता है परन्तु यह दुष्टात्मा तो ऐसा अनर्थ कर बैठता है कि जिसके द्वारा अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक मृत्यु का सामना करना पड़ता है। फिर दयाहीन उस दुष्टात्मा को मृत्यु के समय पश्चात्ताप करने पर अपने कृत्य कार्यों का मान होता हैं कि अरे हा ! इस आत्मा ने कैसे. कसे अनर्थ कर डाले हैं। मल-अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुइमो । अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोऐ परस्थ य ॥५॥ छाया:-आत्मा चंव दमितव्य: आत्मा हि स्खलु दुर्दमः । आत्मादान्त सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ।।५।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अप्पा) आत्मा (चेक) ही (दमेयम्वो) दमन करने योग्य है । (ह) क्योंकि (अप्पा) आत्मा (खलु) निश्चय (दुद्दमो) दमन करने में कठिन है। तभी तो (अप्पा) आत्मा को (दंतो) दमन करता हुआ (अस्ति) इस (लोए) लोक में (य) और (परस्थ) परलोक में (मुही) सुखी (होइ) होता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! क्रोधादि के वशीभूत होकर आत्मा उन्मार्ग-गामी होता है । उसे दमन करके अपने काबू में करना योग्य है । क्योंकि निज आत्मा को दमन करना अर्थात् विषय-वासनाओं से उसे पृथक करना महान कठिन है और जब तक आस्मा को दमन न किया जाय तब तक उसे सुख नहीं मिलता है। इसलिए हे गौतम ! आत्मा को दमन कर, जिससे इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त हो। मूल:-वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माहं परेहि दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य ।।६।। छाया:-बरं मे आत्मादान्तः, संयमेन तपसा च । माऽहं परमितः, बन्धनबंधश्च ॥६॥ अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! आत्माओं को विचार करना चाहिए कि (मे) मेरे द्वारा (संजमेण) संयम (य) और (तदेण) तपस्या करके (अप्पा) आत्मा
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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