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________________ निग्रन्थ-प्रवचन छाया:-न पूजनं चैव श्लाककामी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । सर्वानर्थान् परिवर्जयन्, ___ अनाकुलश्च अकषायी भिक्षुः ॥१६॥ अन्वयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (मिक्खू) साधु (पूयणं) वस्त्र पाचादि की (न) इच्छा न करे (चव) और न (सिलोयकामी) आस्म-प्रशंसा का काभी ही हो (कस्सइ) किसी के साथ (पियमप्पियं) राग और द्वेष (गो) न (करेज्जा) करे (सब्वे) समी (अणट्ठ) अनर्थकारी बातों को जो (परिवज्जयते) छोड़ दे (अणाउले) फिर भय रहित (या) और (अकसाइ) कषाय रहित हो । भाषार्थ:--हे गौतम ! साषु प्रवचन करते समय वस्त्रादि की प्राप्ति की एवं आत्म-प्रशंसा की वांछा कभी न रखे। या किसी के साथ राग और द्वेष से संबंध रखने वाले कथन को भी वह न कहे । इस प्रकार आत्मा को कलुषित करने वाली सभी अनर्थकारी बातों को छोड़ते हुए मय एवं कषाय रहित होकर साधु को प्रवचन करना चाहिए। मूल:-जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आरियसम्मए ॥१७।। छाया:-यया श्रद्धया निष्कान्त:, पर्यायस्थानमुत्तमम् । । तदेवानुपालयेत् गुणेषु आचार्यसम्मतेषु ।।१।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जाए) जिस (सद्धाए) श्रद्धा से (उत्तम) प्रधान (परियायट्ठाणं) प्रवज्यास्थान प्राप्त करने को (निक्वंतो) मायामय कर्मों से निकला (तमेव) वैसी ही उपस भावनाओं से (आरिमसम्मए) तीर्थकर कथित (गुणे) गुण (अणुपालिज्जा) पालना चाहिए । भावार्ष:-- हे गौतम ! जो गृहस्थ जिस श्रद्धा से प्रधान दीक्षा स्थान प्राप्त करने को मायामय काम रुप संसार से पृथक् हुआ उसी भावना से जीवन-पर्यन्त उसको तीर्थंकर प्ररूपित गुणों में वृद्धि करते रहना चाहिये । || इति नवमोऽध्यायः ।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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