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________________ १०७ साधुधर्म-निरूपण मूल:-एवं ण से होइ समाहिपत्त, जे पनवं भिक्खु विउक्कसेज्जा । अहवा वि जे लाभमयावलित, अन्नं जणं खिसति बालपन्ने ॥१५॥ छाया:-एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञया भिक्षः व्युत्कर्षेत् । अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जनं खिसति बालप्रज्ञः ।।१५।। अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार से ( वह गर्व करने का साधु (समाहिपते) समाधि मार्ग को प्राप्त (ण) नहीं (होइ) होता है । और (जे) जो (पनव) प्रज्ञावंत (मिक्यु) साधू होकर (विउक्कसेम्जा) आत्म-प्रशंसा करता है । (अहवा) अथवा (जे) जो (लाममयावलिते) लाम मद में लिप्त हो रहा है वह (बालपन्ने) मूर्ख (अन्न) अभ्य (जणं) जन की (खिसति) निन्दा करता है। भावार्थ:--हे गौतम ! मैं जातिवान हूँ, कुलवान् है इस प्रकार का गर्व करने वाला साधु समाधि मार्ग को कभी प्राप्त नहीं होता है । जो बुद्धिमान हो कर फिर भी अपने आप ही की आत्म-प्रशंसा करता है, अथवा यों कहता है, कि मैं ही साधुओं के लिये वस्त्र, पात्र आदि का प्रबन्ध करता हूं। बेचारा दूसरा क्या कर सकता है? वह तो पेट भरने तक की चिम्ता दूर नहीं कर सकता, इस तरह दूसरों की निन्दा जो करता है, वह साधु कभी नहीं है । मुला-नो पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पिय कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अण? परिवज्जयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ।।१६।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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