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________________ - कर्म निरूपण मूल:--मोहणिज्ज पि विहं, सणे चरणे तहा। दसणे तिबिहं बुत्त, चरणे दुविहं भवे ।।८।। छाया:--मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा। दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत् || अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (मोणिज्जं पि) मोहनीय कर्म भी (दुविह) दो प्रकार का है। (दसणे) दर्शनमोहनीय (तहा) तथा (चरण) चारित्रमोहनीय । अछ (दंसणे) दर्शन मोहनीय कर्म (तिविह) तीन प्रकार का (वुत्त) कहा गया है और (चरणे) चारित्रमोहनीय (दुविद्र! दो प्रकार का (मवे) होता है। भावार्थ:-है गौतम ! मोहनीय कर्म जो जीव बांध लेता है उसको अपने आत्मीय गुणों का मान नहीं रहता है। जैसे मदिरापान करने वाले को कुछ मान नहीं रहला उसी तरह मोहनीय कर्म के उदय काल में जीव को शुद्ध श्रद्धा और क्रिया की तरफ भान नहीं रहता है। यह कर्म दो प्रकार का कहा गया है। एक दर्शनमोहनीव, दूसरा चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के तीन प्रकार और चारित्रमोहनीय के दो प्रकार होते हैं। मूलः-सम्मत्त चेव मिच्छत्त, सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिण्णि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दसणे ॥६॥ छाया:-सम्यक्त्वं चंब मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्वमेव च । एतास्तिस्रः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने ॥६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय सम्बन्ध के (दंसणे) दर्शन में अर्थात् दर्शनमोहनीय में {एमाओ) ये (तिण्णि) तीन प्रकार की (पयहोओ) प्रकृतियां हैं (सम्मत्तं) सम्यक्त्वमोहनीय (मिच्छत्तं) मिथ्यात्वमोहनीय (य) और (सम्मामिच्छत्तमेव) सम्यमिथ्यारवमोहनीय । भावार्थ:-हे गौतम ! दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार का होता है । एक तो सम्यक्त्वमोहनीय, इसके उदय में जीव को सम्यक्स्व की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु मोहवश ऐहिक सुख के लिए तीर्थंकरों की माला जपता रहता है । यह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म का उदय है। यह कर्म जब तक बना रहता है तब
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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