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________________ आत्म शुचि के उपाय छायाः-मानुष्यं चानित्यं व्याधिजरामरणवेदना प्रचुरम् । देवश्च देवलोको देवद्धि देवसोख्यानि 1॥२॥ ___ अन्वयापं:-हे इन्द्रभूति ! (माणुस्म) मनुष्य जन्म (अणिच्च) अनित्य है (च) और वह (वाहिजरामरणवेयणापउर) व्याधि, बरा, मरण, रूप प्रचुर वेदना से युक्त है (प) और (देवलोए) देवलोक में (देवे) देवपर्याय (देविति) देव ऋद्धि और (देवसोक्खाई) देवता संबंधी सुख भी अनित्य है । ____ भावार्थ हे गौतम ! मनुष्य जन्म अनित्य है । साय हो जरा-मरण आदि व्याधि की प्रचुरता से भरा पड़ा है। और पुण्य उपार्जन कर जो स्वर्ग में गये हैं, वे वहाँ अपनी देव ऋद्धि और देवता संबंधी सुखों को भोगते हैं । परन्तु आखिर वे मी वहां से चलते हैं। मूल:--ण रगं तिरिक्खजोणि, माणसभा च देवलोगं च । सिद्धे अ सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥ छायाः-नरक तिर्यग्योनि मानुष्यभवं देवलोकं च । सिद्धिश्च सिद्धवसति षट्जीवनिकायं परिकथति ।।३।। शम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो जीव पाप कर्म करते है, वे (णरर्ग) नरक को और (तिरिक्खजोणि) तिर्यच योनि को प्राप्त होते हैं । और जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे (माणुसमावं) मनुष्य मव को (च) और (देवलोग) देवलोक को जाते हैं, (अ) और जो (छज्जीवणियं) षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं, वह (सिद्धवसहि) सिद्धावस्था को प्राप्त करके अर्थात् सिद्ध गति में जाकर (सिद्धे) सिद्ध होते हैं । ऐसा सभी तीर्थंकरों ने (परिकहेइ) कहा है। भावार्थ:--हे आर्म ! जो आत्मा पाप कर्म उपार्जन करते हैं, वे नरक और तिर्यंच योनियों में जन्म लेते हैं | जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे मनुष्यजन्म एवं देव-गति में आते हैं। और जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा बनस्पति के जीवों की तथा हिलते-फिरते त्रस जीवों की सम्पूर्ण रक्षा कर अष्ट कर्मों को बुर चूर कर देने में समर्थ होते हैं, वे आत्मा सिद्धालय में सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । ऐसा शानियों ने कहा है ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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