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________________ निर्गम्य-प्रवचन हे गौतम ! अब हम इन चारों जगह का आयुष्य किन-किन कारणों से बँधता है, उसे कहते हैं । म हारम्म करना, अत्यन्त लालसा रखना, पंपेन्द्रिय जीवों का वध करना लथा मांस खाना, आदि ऐसे कार्यों से नरकायुष्य का बंध होता है। कपट करना, कपटपूर्वक फिर कपट करना, असत्य भाषण करना, तौलने की वस्तुओं में और नापने की प्रस्तयों में कमीठी लेटा देर दिपेगे कार्यों को करने से तिपंचामुष्य का बन्ध होता है। निष्कपट व्यवहार करना, नम्रभाव होना, सब जीवों पर दयाभाव रखना, तथा ईया नहीं करना आदि कार्यों से मनुष्यायुष्य का बंध होता है। सरागसंयम व गृहस्थधर्म के पालने, अज्ञानयुक्त तपस्या करने, बिना इच्छा से भुग्म, प्यास आदि सहन करने तथा शीलवत पालने से देवायुष्य का बंध होता है। हे गौतम ! अब हम आगे नामकर्म का स्वरूप कहते हैं, सो सुनोःमूल:-नामकम्मं तु दुविहं. सुहं असुहं च आहियं । सुहस्स तु बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥१३॥ छाया:-नामकर्म तु द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम् । शुभस्य तु बह्वो भेदा एबमेवाशुभस्याऽपि ॥१३।। अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति I (नामकम्मं तु) नाम कर्म तो (दुविह) दो प्रकार का (आहियं) कहा गया है। (सुह) शुम नाम कर्म (च) और (असुह) अशुभ नाम कर्म जिसमें (सहस्स) शुभ नाम कर्म के (तु) तो (बहू) बहुत (भेया) भेद हैं। (असुहस्स वि) अशुम नाम कर्म के भी (एमेव) इसी प्रकार अनेक भेद माने गये हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके द्वारा शरीर सुन्दराकार हो अथवा जो असुन्दराकार होने में कारणभूत हो वहीं नाम कर्म है। यह नाम कर्म दो प्रकार का माना गया है | उनमें से एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म है । मनुष्य शरीर, देव शरीर, सुन्दर अंगोपांग, गौर वर्णादि, वचन में मधुरता का होना, लोकप्रिय, यशस्वी, तीर्थकर आदि-आदि का होना, ये सब शुभ नाम कर्म के फल हैं। नारकीय, तिर्यम का शरीर धारण करना, पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि में जन्म लेना, बेडौल अंगोपांगों का पाना, कुरूप और अयशस्वी होना । ये सब अशुभ नाम कर्म के फल हैं ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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