SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक हत्य १६३ छायाः-आक्रोशेत् परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत् । सदृशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (परे) कोई दूसरस (मिक्खं) भिक्षु का (अक्कोसेज्जा) तिरस्कार करे (तसि ) उस पर वह (न) न (पडिसंजने) क्रोध करे, क्योंकि क्रोध करने से (बालाणं) मूर्ख के (सरिसो) सदृश (होइ) होता है (तम्हा) इसलिए (मिक्स) भिक्षु (न) न (संजले) क्रोध करे। ____भावार्थ:-हे आर्य ! भिनु या साधु या ज्ञानी वहीं है, जो दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने पर भी उन पर बदले में क्रोध नहीं करता। क्योंकि क्रोध करने से शानी जन भी मूर्ख के सहश कलाता है। इसलिए बुद्धिमान श्रेष्ठ मनुष्य को पाहिए कि वह क्रोध न करे । मूल:--समणं संजय दंतं, हणेज्जा को वि कत्थइ । नस्थि जीवस्स नासो त्ति, एवं पेहिज्ज संजए ।।५।। छाया:-श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रचित् । नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ।।५।। अग्षयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (को वि) कोई मी मनुष्य (कत्याइ) कहीं पर (संजय) जीवों की रक्षा करने वाले (दंत) इन्द्रियों को दमन करने वाले (समर्ण) तपस्वियों को (हणेज्जा) ताड़ना करे, उस समय (जीवस्स) जीव का (नासो) नाम (नत्यि) नहीं है (एवं) इस प्रकार (संजए) वह तपस्वी (पेहिज्ज) विचार करे। भाषा:--हे गौतम ! सम्पूर्ण जीवों को रक्षा करने वाले तथा इन्द्रिय और मन को जीतने वाले, ऐसे तपस्वी मानी अनों को कोई मूर्ख मनुष्य कहीं पर ताडना आदि करे तो उस समय वे ज्ञानी यों विचार करें कि जीव का तो नाश होता ही नहीं है। फिर किसी के ताड़ने पर व्यर्थ ही कोच क्यों करमा चाहिए।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy