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________________ १६२ निर्ग्रन्थ-प्रवचन छाया:-श्वान सूतिका गां, दृप्तं गोणं हयं गजम् । सडिम्भं कलहं युद्धं, दूरतः परिवर्जयेत् ।।२।। मन्वया:-- हे इन्द्रभूति ! (माणं) पान (सूइन) प्रसूता (गावि) गो (दित्तं) मतवाला (गोणं) बल (हयं) घोड़ा (गय) हाथी, इनको और (संहिन्म) बालकों के कीड़ास्थल (कलह) वाक्युद्ध की जगह (जुद्धं) शास्त्रमुख की जगह आदि को (दुरमो) दूर ही से (परिवजए) छोड़ देना चाहिए । भावार्थ:-हे मार्य ! जहाँ श्वान, प्रसूता गाय, मतवाला बैल, हाथी, घोड़े खड़े हो या परस्पर लड़ रहे हों वहाँ ज्ञानी जन को नहीं जाना चाहिए । इसी तरह जहाँ बालक खेल रहे हों या मनुष्यों में परस्पर वाकयुद्ध हो रहा हो, अमवा शस्त्र-युद्ध हो रहा हो, ऐसी जगह पर जाना बुद्धिमानों के लिए दूर से ही स्याज्य है। मल:--:मया अग्वेलर होइ, संचले आषि एगया । एअंधम्महियं णच्चा, णाणी णो परिदेवए ॥३।। छायाः-एकदाऽचेलको भवति, सबेलको वाप्येकदा । एतं धर्म हित ज्ञाल्ला, ज्ञानी नो परिदेवेत ।।३।। अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (एगया) कमी (अचेलए) वस्त्र रहित (होइ) हो (एगया) कभी (सचेलेमावि) बस्त्र सहित हो, उस समय समभाव रखना (ए) यह (धम्महियं) धर्म हितकारी (णच्चा) जान कर (पाणी) ज्ञानी (ण) नहीं (परिदेवए) खेदित होता है । भावार्थ:-- हे गौतम ! कभी ओढ़ने को वस्त्र हो या न हो, उस अवस्था में सममाव से रहना, बस इसी धर्म को हितकारी जान कर योग्य वस्त्रों के होने पर अथवा वात्रों के होने पर अथवा वस्त्रों के विसकुल अभाव में या फटे टूटे वस्त्रों के सभाव में ज्ञानी जन कमी स्वेद नहीं पाते । मुल:--अक्कोसेज्जा परे भिक्खू, न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।।४।। ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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