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नरक-स्वर्ग-निरूपण
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(चव) और (उबरिमामज्झिमा) ऊपर की त्रिक का बीच वाला (तहा) तथा (जरिमा उरिमा) ऊपर की त्रिक का ऊपर वाला (इइ) इस प्रकार नौ मेदों से (गेविज्जगा) अवेयक के (सुरा) देवता हैं । (विजया) विजय (वजयम्सा) वैजयंत (य) और (जयंता) जयंस (अपराजिया) अपराजित (चेव) और (सम्वत्यसिद्धगा) सर्वार्थसिद्ध ये (गंचहा) पाँच प्रकार के (अणुत्तरा) अनुत्तर विमान के (सुरा) देवत्ता कहे गये हैं। (इइ) इस प्रकार (एए) ये मुख्य मुख्य (माणिया) वैमानिक देवों के भेद कहे गये हैं। और प्रती एकमाओ) आदि में (अणेगहा) अनेक प्रकार के हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! बारह देवलोक से ऊपर नो वेयक जो हैं उनके नाम यों हैं--(१) भद्दे (२) सुम (३) सुजाय (४) सुमाणसे (५) सुदर्शने (६) प्रियदर्शने (७) अमोहे (८) सुपडिभद्दे और (६) यशोधर और पाव अनुत्तर विमान यों हैं- (१) विजय (२) वैजयंत (३) जयंत (४) अपराजित (५) सर्वार्थसिद्ध । ये सब वैमानिक देवों के भेद बताए गये हैं । मूल:---जेसि तु बिउला सिक्खा, मूलियं ते अइत्थिया ।
सीलबंता सवीसेसा, अदीणा जति देवयं ।।२७।।
(१) किसी एक साहूकार ने अपने तीन लड़कों को एक-एक हजार रुपया देकर व्यापार करने के लिए इतर देश को भेजा। उनमें से एक ने तो यह विचार किया कि अपने घर में खूब धन है। फिजूल ही व्यापार कर कौन कष्ट उठाने, अतः ऐशो आराम करके उसने मूल पूंजी को भी खो दिया। दूसरे ने विचार किया, कि व्यापार करके मूल पूंजी तो ज्यों की त्यों कायम रखनी चाहिए । परन्तु जो लाभ हो उसे एशो आराम में वर्ष कर देना चाहिए । और तीसरे ने विचार किया, कि मूल पूंजी को खूब ही बनाकर घर घसना चाहिए। इसी तरह वे तीनों नियत समय पर घर आये । एक मूल जी को खोकर. दूसरा मूल पूजी लेकर, और तीसरा मूल पूंजी को खूब ही बढ़ा कर घर आया । इसी तरह आत्माओं को मनुष्य-मष रूप मूल धन प्राप्त हुआ है। जो पारमाएँ मनुष्य भव कप मूल धन की उपेक्षा करके खूब पापाचरण करती हैं वे मनुष्य-मव को खो कर नरक और तिपंच योनियों में जाकर जाम धारण करती हैं। और जो आत्माएं पाप करने से पीछे हटती हैं, वे अपनी मूल पूंगी