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________________ १०४ निग्रन्थ-प्रवचन याणि) बनस्पतियों को स्वतः (न) नहीं (छिदे) खेवता और (न) न औरों ही से (शिंदावए) शिददाता है, (बीयाणि) बीजों को छेदना (सया) सदा (विवज्जयंतो) छोड़ता हुआ (सच्चित्तं) सचित्त पदार्थ को जो (न) न (आहारए) माता है । (स) वही (भिक्खू) साधु है । भावार्थ:--हे गौतम ! जिसने इन्द्रिय-जन्य सुखों की ओर मे अपना मुंह मोड़ लिया है, वह कभी भी हवा के लिये पंखों का न तो स्वतः प्रयोग करता है और न औरों से उसका प्रयोग करवाता है। और पान, फल, फूल आदि वनस्पतियों का भक्षण छोड़ता हुआ, सचित्त पदार्थों का कभी आहार नहीं करता, वही साधु है । तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार का हिंसाजनक आरंम नहीं करते। मूल:-महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥११॥ छाया:-मधुकरसमा बुद्धाः, ये भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः ||११|| अम्बयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (महकारसमा) जिस प्रकार थोड़ा-थोड़ा रस लेकर भ्रमर जीवन बिताते हैं, ऐसे ही (जे) जो (दंता) इन्द्रियों को जीतते हुए (नाणापिंडरया) नाना प्रकार के आहार में उद्वेग रहित रहने वाले हैं ऐसे (बुद्धा) तत्त्वा (अपिस्सिया) नेत्राय रहित (भवंति) होते हैं (तेण) इसी से उन्हें (साहणो) साधु (बुच्चंति) कहते हैं। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार भ्रमर फूलों पर से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपना जीवन बिताता है । इसी तरह जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तीखे, कडवे, मधुर आदि नाना प्रकार के मोजनों में उद्वेग रहित होते हैं तथा जो समय पर जैसा भी निर्दोष भोजन मिला, उसी को खाकर मानंदमय संयमी जीवन को अनेश्रित होकर बिताते हैं, उन्हीं को हे गौतम ! साधु कहते हैं। 1 An animate thing; as water, flower, fruit, greep grass etc.
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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