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________________ साधुधर्म निरूपण मूलः - जे न वंदे न से कुप्पे, बंदिओ न समुक्कसे । एवमन्ते समाणस्स सामण्णमचि ॥ १२॥ १०५ छाया:-यो न वन्देत् न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षत् । भागण्यमनुतिष्ठति ॥१२॥ एक्दमेषा नत्य, अन्वयार्थ: हे इन्द्रभूति ! (जे) जो कोई गृहस्थ साधु को (न) नहीं ( बंदे ) बन्दना करता (से) वह साधु उस गृहस्थ पर (न) न ( कुप्पे ) क्रोध करे, और ( बंदिओ) वंदना करने पर न ( स मुक्कसे) उत्कर्षता ही दिसावे ( एवं ) इस प्रकार ( अन्ने समाणस्स ) गवेषणा करने वाले का ( सामण्णं ) श्रामण्य अर्थात् साधुता ( अणुचि) रहता है । भावार्थ :- हे गौतम! साधु को कोई बन्दना करे या न करे तो उस गृहस्थ पर वह सानु क्रोधित न हो। साधुता के गुणों पर यदि कोई राजादि मुग्ध हो जाय और वह वन्दनादि करे तो वह साधु गर्वान्वित भी कमी न हो, बस, इस प्रकार चारित्र को दूषित करने वाले दूषणों को देखता हुआ उनसे बालबाल बचता रहे उसी का पारित्र' अखण्ड रहता है । मूलः - पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी । सुहमे उसया अलूस, णो कुज्झे णो माणि माहणे ॥ १३ ॥ छाया: – प्रज्ञा समाप्तः सदा जयेत् समतया धर्म मुदाहरेन्मुनिः । सूक्ष्मे तु अनूषकः, न कुष्येश मानी मान् ॥१३॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ( मुणी ) वह साधु ( पण्णसमत्ते ) समग्र प्रशा करके सहित तथा प्रश्न करने पर उत्तर देने में समर्थ (सया ) हमेशा (जए) कषायादि को जीते ( समताधम्ममुदाहरे ) समभाव से धर्म को कहता हो, और (सया ) सदैव ( सुहमे ) सूक्ष्म चारित्र में (अलूस ए ) अविराधक हो, उन्हें ताड़ने पर (पो) नहीं ( कुज्झे ) कोधित हो एवं सत्कार करने पर ( णो) नहीं (माणि) मानी हो, वही ( माहणे ) साधु है । 1 Right conduct; ascetic conduct inspired by the subsidence of obstructive Karma.
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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