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साधुधर्म-निरूपण छाया-पृथिवीं न खनेन खानयेत्
___ शीतोदकं न पिवेन्न पाययेत् । अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम्,
सं न ज्वलन्न ज्वालयेत् यः स भिक्षुः ।।६।। अभ्यया:-हे इन्द्रभूति ! (जे) जो (पुढवि) पृथ्वी को स्वयं (न) नहीं (खणे) खोदे औरों से भी (न) न (खणावए) खुदवाये (सीओदगं) शीतोदकसचित्तजल को (न) नहीं पीथे, औरों को भी (न) नहीं (घियावए) पिलावे; (पहा) जैसे (सुनिसियं) खूब अच्छी तरह तीक्ष्ण (सत्थं) शस्त्र होता है, उसी तरह (अगणि) अग्नि है (त) उसको स्वयं (न) नहीं (जले) जलावे, औरों से भी (न) न (जलावए) अलवावे (स) वही (मिक्खू) साघु है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! सर्वथा हिंसा से जो बचना चाहता है वह म स्वयं पृथ्वी को खोदे और न औरों से खुदवाये । इसी तरह न सचित्त (जिसमें जीव हो उस) जल को तुद पीवे और न औरों को पिलाये। उसी तरह न अग्नि को भी स्वयं प्रदीप्त करे और न औरों ही से प्रदीप्त करवाये बस, वही साधु है ।
मूल:-अनिलेण न बीए न वीयावए,
हरियाणि न छिदे न छिदावए । बोयाणि सया विवज्जयंतो,
____ सच्चित्त नाहारए जे स भिक्खू ॥१०॥ छाया:-अनिलेन न बीजयेत् न बीजायेत्,
हरितानि न च्छिदयेन्नच्छेदयेत् । बीजानि सदा विवर्जयन,
सचित्तं नाहरेद् यः स भिक्षुः ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्ट्रभूति ! (जे) जो (अनिलेण) वायु के हेतु पंखे को (न) नहीं (वीए) चलाता है, और (न) म औरों से ही (वीयावए) चलवाता है (हरि