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________________ मनो-निग्रह १८६ भावार्थ:---हे गौतम ! जैसे मागदमनी गंध का लोलुप ऐसा जो रागातुर सर्प है, वह अपने बिल से बाहर निकलने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। वैसे ही जो जीव गंध विषयक पदार्थों में लीन हो जाता है, यह शीघ्न ही असमय में अपनी आयु का अन्त कर बैठता है। मूल:--रसेस जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं, अकालिअं पाबइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।।१७।। छाया:--रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीयां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरो चडिशविभिनाकाः, मत्स्यो यथाऽमिषभोगगृतः ॥१७॥ अम्बयाप:--हे इन्धभूति ! (जहा) जैसे (आमिस-भोगगिद्धे) मांस भक्षण के स्वाद में लोलुप ऐसा (रागाउरे) रागातुर (मच्छे) मच्छ (बडिसविभिन्नकाए) मांस या घाटा लगा हुआ ऐसा जो तीक्ष्ण कोटा उससे विधकर नष्ट हो जाता है । ऐसे हो (जो) जो जीव (रसेसु) रस में (गिछि) गुद्धिपन को (ज्वेद) प्राप्त होता है, (से) वह (अकालिअं) असमय में ही (तिरुवं) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) प्राप्त होता है । भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार मांस मक्षण के स्वाद में लोलुप जो रागातुर मच्छ है वह मरणावस्था को प्राप्त होता है। ऐसे ही जो आत्मा इस रसेन्द्रिय के वशवर्ती होकर अत्यन्त गुद्धिपन को प्राप्त होती है वह असमय ही में द्रव्य और माव' प्राणों से रहित हो जाता है । मूल:--फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलावसन्न, गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥१८||
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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