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छाया: शब्धेषु को वृद्धिमुपैति सीक अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् ।
मृत्युम् ||१५||
रागातुरो हरिणमृग इव मुग्ध:, शब्देस्तृप्तः समुपैति अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति (ब्ब) जैसे ( रागा उरे) रामातुर ( मुद्धे ) मुग्ध (स) शब्द के विषय से (अतित्ते ) आतुप्त (हरिणमिए) हरिण ( मच्चं ) मृत्यु को (समुवेध ) प्राप्त होता है, वैसे ही (जो) जो आत्मा ( सई सु) शब्द विषयक (गिaि) गृद्धि को ( मुवेइ) प्राप्त होती है (मे) वह (अकालिअं ) असमय में ( तिब्वं ) शीघ्र ही (विणासं) विनाश को (पाव) पाती है। भावार्थ:- हे आर्य ! राग भाव में श्रोत्र के विषय में अतृप्त ऐसा जो वर्ती होकर अपना प्राण खो बैठता है । विषय में लोलूप होती है, वह शीघ्र जाती है।
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लवलीन हित-अहित का अनभिज्ञ, हिरण है वह केवल श्रोत्रेन्द्रिय के वश उसी तरह जो आत्मा श्रोत्रेन्द्रिय के ही असमय में मृत्यू को प्राप्त हो
मूल:--- गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिअं पावइ से विषास । रागाउरे ओस हिगंधगिद्ध,
सप्पे बिलाओ विव निक्खते ॥ १६ ॥
छाया: - गन्धेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां
नियंग्य-प्रवचन
अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् ।
रागातुर औषघमंघगृद्धः, सप
बिलानिव नि:क्रामन् ॥१६॥
अग्वपार्थ :- हे इन्द्रभूति | (ओस हिंगंध गिद्ध ) नाग दमनी औषध की गंध में मग्न (रागाजरे ) रागातुर (सप्पे ) सर्प (विलाओ ) बिल से बाहर (नक्खमंते ) निकलने पर नष्ट हो जाता है (दिव) ऐसे ही (जो ) जो जीव (गंधेसु) गंध में (गिद्धि) गृपने को ( उबेद ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालि) असमय ही में ( तिब्वं ) शीघ्र (विणासं) विनाश को ( पावइ) प्राप्त होता है ।