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मनो-निग्रह
१८७ चिन्तवन करना ध्यान तप कहलाता है, और शरीर से सर्वथा ममत्व को परित्याग कर देना यह छठा व्युत्सगं तप है। यों ये छ: प्रकार के आभ्यन्तर तप हैं। इन बारह प्रकार के तप में से, जितने भी बन सके, उसने प्रकार के तप करके पूर्व संचित करोड़ों जन्मों के कर्मों को यह जीव सहज ही में नष्ट कर सकता है। मूल:--रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्द,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे,
आलोअलोले समुवेइ मच्चु ॥१४॥ छाया:-रूपेषु यो गृद्धिमुपैति तोनां,
___ अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् रागातरः स यथा वा पतङ्गः,
__ आलोकलोलः समुपैति मृत्युम् ॥१४।। अन्वयार्ष:-हे मन्द्रभूति ! (जो) जो प्राणी (रूवेसु) रूप देखने में (गिति) गुद्धि को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालियं) असमय (तिम्व) शीघ्र ही (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है (जह वा) जैसे (आलोअलोले) देखने में लोलुप (से) वह (पर्य गे) पतंग (रागाउरे) रागातुर (मच्चु ) मृत्यु को (समुवेइ) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे देखने का लोलुपी पतंग जलते हुए दीपक की लो पर गिर कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है। वैसे ही जो आरमा इन चक्षओं के बशर्ती हो विषय सेवन में अत्यन्त सोलप हो जाती है, वह शीघ्र ही असमय में अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है। मूल:--सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्यं,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिए व्व मुद्ध,
सद्दे अतित समुवेइ मच्चु ॥१५॥