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निन्ध-प्रवचन
छाया:--अङ्गार-वन-शाटी, भाटि: स्फोटि: सुवर्जयेत् कर्म।
बाणिज्यं चैव च दन्त-लाक्षा-रस-केश-विष-विषयम् ॥२॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (हंगाली) कोयले पड़वाने का विण) बन कटवाने का (माडी) गाड़ियां बनाकर बेचने का (माडी) गाड़ी, घोड़े, बैल, आदि से माड़ा कमाने का (फोडी) खाने आदि खुदवाने का (क्रम्म) कर्म गृहस्थ को (सुपज्जए) परित्याग कर देना चाहिए । (म) और (दत) हाथी दांत का (लाख) लाख का (रस) मधु आदि का (केस) मुगी, कबूतरों आदि के बेचने का (विसविसयं) जहर और शस्त्रों आदि का (वाणिज्ज) व्यापार (नेव) यह भी निश्चय रूप से गृहस्थों को छोड़ देना चाहिए।
भावार्थ:- हे आर्य ! गृहस्पधर्म पालन करने वालों को कोयले तयार करवा कर बेचने का या कुम्हार, लुहार, भड़भूज आदि के काम जिनमें महान अग्नि का आरंभ होता है, नहीं गारमा काहिए । 41, शा। करवा पा का वगैरह लेने का, इक्के, गाड़ी, वगैरह तैयार करवा कर बेचने का, बैल, घोड़े, अॅट आदि को भाड़े से फिराने का, या इषके, गाडी, वगैरह माले फिरा करके माजीविका कमाने का और खाने आदि खुदवाने का कर्म आजीवन के लिए छोड़ देना चाहिए । और व्यापार संबंध में हाथी दांत, चमड़े आदि का, लास्त्र का, मदिरा, शहद आदि का, कबूतर, बटेर, तोते, कुक्कुट, बकरे आदि का, संखिया, वच्छनाग मादि जिनके खाने से मनुष्य भर जाते हैं ऐसे जहरीले पदार्थों का, या तलवार, बन्दुक, बरछी आदि का व्यापार कम से कम गृहस्प-धर्म पालन करनेवाले को कभी भूल कर भी नहीं करना चाहिए। मूल:--एवं खु जंतपिल्लणकम्म, निलंछणं च दबदाणं ।
सरदहतलायसोस, असइपोसं च वज्जिज्जा ॥३॥ छाया:—एवं खलु यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाञ्छनं दवदानम् |
सरद्रहत्तडागशोषं, असती पोषम् च वर्जयेत् ।।३।।
बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार (खु) निश्चय करके (जंतपिल्लण) यंत्रों के द्वारा प्राणियों को बाधा पहुंचे ऐसा (घ) और (निल्लंधणं) अण्डकोष फुड़वाने का (देवदाणं) दावानल लगाने का (सरदह