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प्रमाद-परिहार
मूलः--धम्म पि हु सद्दहंतया,
दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया,
समयं गोयम ! मा पमायए ।।२०।। छाया:-धर्ममपि हि श्रद्धतः, दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः ।
इह कामगुणर्मूच्छिताः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।२०।। अन्वयार्थः-(गोयम) हे गौतम ! (धम्म पि) धर्म को मी (सहितया) श्रखते हुए (काएण) काया करके (फासया) स्पर्श करना (दुल्लहमा) दुर्लम है (ह) क्योंकि (इह) इस संसार में बहुत से जन (कामगुणे हि) मोगादि के विषयों थे (भुजिया) मूच्छित हो रहे हैं अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! प्रधान धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उसके अनुसार पलना और भी कठिन है । धर्म को सत्य कहने वाले वाचाल तो बहुत लोग मिलेंगे पर उसके अनुसार अपना जीवन बिताने वाले बहुत ही पोड़े देखे जायेंगे। क्योंकि इस संसार के काम-मोगों से मोहित होकर अनेकों प्राणी अपना अमूल्य समय अपने हाथों लो रहे हैं। इसलिए श्रद्धापूर्वक क्रिया करने वाले हे गौतम ! कर्मों का नाश करने में एक क्षणमात्र का भी प्रमाद मत
मुल:--परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते।
से सोयबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए ।॥२१॥ छाया:---परिजीयति ते शरीरके, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते ।
तत् श्रोत्रबलं च हीयते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२१॥ मनायार्य:- (गोयम) हे गौतम ! (ते) तेरा (सरीरयं) शरीर (परिजूरइ) जीर्ण होता जा रहा है । (ते) लेरे (केसा) बाल (पंडुरया) सफेद (हवंति) होते जा रहे हैं । (य) और (से) वह शक्ति जो पहले पी (सोयबले) श्रोत्रेन्द्रिय की