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________________ निर्ग्रन्थ-प्रवचन (अध्याय सत्रहवाँ) नरक-स्वर्ग-निरूपण ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मुल:-नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे । रयणाभासक्कराभा, गाय आदिआ 1११ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरआ एए, सत्तहा परिकित्तिया ।।२।। छाया:-नैरयिकाः सप्तविधा: पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः । रत्नाभा शर्कराभा, वालुकामा च आख्याता ॥१॥ पङ्काभा धूमाभा, तमः तमस्तमः तथा। इति नेरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः ।।स। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (नेरझ्या) नरक (सत्तसू) सात अलग-अलग (पुरुषीसु) पृथ्वी में (मवे) होने से (सत्तविहा) सात प्रकार का (आहिमा) कहा गया है । (रपणाभासक्रामा) ररनप्रमा, शकंराममा (य) और (वालयामा) बालुप्रमा (पंकामा) पंकप्रभा (धूमामा) धूमप्रभा (तमा) तमप्रमा (तहा) वैसे ही तथा (तमतमा) तमतमा प्रभा (इइ) इस प्रकार (एए) ये (नरहया) नरक (सत्तहा) सात प्रकार के (परिकिसिया) कहे गये हैं। भावार्थ:--हे गौतम ! एक से एक भिन्न होने से नरक को ज्ञानीजनों ने सात प्रकार का कहा है। वे इस प्रकार हैं-(१) बैड्यं रत्न के समान है
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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