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मोम-स्वरूप
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अन्वयार्थः -- हे इन्द्रभूति (देवगंधण्यमस्सइए) देव, गंधर्व और मनुष्य से पूजित (स) वह विनयशील मनुष्य (मलपंकपुब्वयं) रुधिर और वीर्य से बनने वाले (देह) मानव शरीर को (चतु) छोड़ करके (सास ए ) शाश्वत (सिद्ध वा ) fa (s) होता है ( ) अथवा ( अप्परए) अल्प कर्म वाला (महिड्डिए) महा ऋद्धिवान (देवे ) देवता होता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! देव, गंध और मनुष्यों के द्वारा पूजित ऐसा वह विनीत मनुष्य रुधिर और वीर्य से बने हुए इस शरीर को छोड़कर पाश्वत सुखों को सम्पादन कर लेता है । अथवा अल्प कर्म वाले महा ऋद्धिवान देवों को श्रेणी में जन्म धारण करता है। ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है ।
मूल:---- अतिथ एगं धुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ १७॥
छाया: - अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं, लोकाग्रे दुरारोहम् ।
यत्र नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा ॥ १७॥
अन्वयार्थ — इन्द्रभूति (लोगगम्मि) लोक के अग्र भाग पर (दुरारुहं ) कठिनता से चढ़ सके ऐसा ( एगं) एक ( भुवं ) निश्चल ( ठाणं) स्थान (अस्मि) है । (जस्थ ) जहाँ पर (जरामच्चू) जरामृत्यु ( वाहिणो) व्याधियों ( तहा) तथा (वेपणा) वेदना (नरिथ) नहीं है ।
भावार्थ :- हे गोतम ! कठिनता से जा सके, ऐसा एक निश्चल, लोक के अन भाग पर, स्थान है । जहाँ पर न वृद्धावस्था का दुख है और न व्याधियों ही की लेन-देन है तथा शारीरिक व मानसिक वेदनाओं का भी वहाँ नाम नहीं है ।
खेमं सिलमणा बाहं,
मूल:- निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगगमेव य । जं चरंति महेसिणो || १८ || सिद्धिर्लोकाग्रमेव च । यच्चरन्ति महर्षयः ||१८||
छाया: - निर्वाणमित्यबाधमिति,
क्षेमं शिवमनाबाधं,