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________________ ६० निर्गन्ध-प्रवचन मूलः--भणंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । ___ वायाविरियमत्तणं, समासासंति अप्ययं ॥९॥ छाया:-भणन्तोऽकुर्वन्तश्च, बन्धमोक्ष प्रतिजिनः । वाग्वीर्यमाण, समाश्वसन्त्यात्मानम् ।।९।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति । (बधभोक्खपइमिणो) ज्ञान ही को बंध और मोक्ष का कारण मानने वाले, कई एक लोग ज्ञान ही से मुक्ति होती है, ऐसा (मणता) बोलते हैं । (य) परन्तु (मकरिता) अनुष्ठान वे नहीं करते । अत: वे लोग (वायाविरियमत्तेणं) इस प्रकार वचन की वीरता मात्र ही से (अप्पयं) आत्मा को (समासासंति) अच्छी तरह आश्वासन देते हैं । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! कर्मों का बंधन और शमन एक ज्ञान ही से होता है, ऐसा दावा--प्रतिज्ञा करने वाले कई एक लोग अनुष्ठान की उपेक्षा फरके यों बोलते हैं, कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जाती है, परन्तु वे एकान्त ज्ञानवादी लोग केवल अपने बोलने की वीरता मात्र ही से अपने आत्मा को विश्वास देते हैं, कि हे आत्मा ! तु कुछ मी चिन्ता मत कर । तू पढ़ा-लिखा है, बस, इसी से कर्मों का मोचन हो जावेगा। तप, जप किसी भी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हे गौतम ! इस प्रकार आत्मा को आश्वासन देना, मानो आस्मा को धोखा देना है। क्योंकि, ज्ञानपूर्वक अनुष्ठान करने ही से कर्मों का मोचन होता है। इसीलिए मुक्ति-पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। मुल:-ण चित्ता तायए भासा; कओ विज्जाणुसासणं । विसण्णो पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ।।१०।। छायाः- चित्रास्त्रायन्ते भाषा:, कुतो विद्यानुशासनम् । विपण: पापकर्मभिः, बाला:पण्डितमानिनः ।।१०।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पंडियमाणिशो) अपने आपको पण्डित मानने वाले (बाला) अज्ञानी जन (पावकम्मेहि) पाप कर्मों द्वारा (विसण्णा) फंसे हुए यह नहीं जानते हैं कि (चित्ता) विपित्र प्रकार की (मासा) भाषा (तायए)
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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